शनिवार, 17 जनवरी 2015

अक्षर –ए – दास्तान ,,,

अक्षर –ए – दास्तान


हर बार एक ही बात
हर पन्ने पर एक ही अलफ़ाज़
ये भी आई
वो भी गई
क्या कर गई हमारी सरकार !
क्या शुरू करूँ
क्या अंत धरुं
कौन सा कलमा लिखूं मै सरकार !
दिनों दिन बढते जा रहे है पन्ने
कुछ अछे
कुछ गंदे
जब उठाए हमने प्रश्न
कई दिग्गज हो गए नंगे !
रंग काला है
दिन काला नहीं
काले धन के पन्नो का
बिल काला नहीं !
एक दशक से उठ रहा सवाल
काले धन का हल
कर पाएगी सरकार ?
लिखने को तो लिखता रहूँ
पन्ने काले करके विकता रहूँ !
सुनील बनेगा नया इतिहास ?
या यूँ ही लिखता रहेगा
अक्षर –ए – दास्तान
जिसकी बढ़ रही विसात !



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