अक्षर –ए – दास्तान
हर बार एक ही बात
हर पन्ने पर एक ही
अलफ़ाज़
ये भी आई
वो भी गई
क्या कर गई हमारी
सरकार !
क्या शुरू करूँ
क्या अंत धरुं
कौन सा कलमा लिखूं
मै सरकार !
दिनों दिन बढते जा
रहे है पन्ने
कुछ अछे
कुछ गंदे
जब उठाए हमने प्रश्न
कई दिग्गज हो गए
नंगे !
रंग काला है
दिन काला नहीं
काले धन के पन्नो का
बिल काला नहीं !
एक दशक से उठ रहा
सवाल
काले धन का हल
कर पाएगी सरकार ?
लिखने को तो लिखता
रहूँ
पन्ने काले करके
विकता रहूँ !
सुनील बनेगा नया
इतिहास ?
या यूँ ही लिखता
रहेगा
अक्षर –ए – दास्तान
जिसकी बढ़ रही विसात
!
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