रविवार, 7 अक्टूबर 2018

ज़मीनी हक़ीक़त: दिवाली आई तो लक्ष्मी पूजा , लक्ष्मी के रूप में बेटी आई तो काम दूजा

  लगभग एक सदी के अंतराल से सुन रहा हूँ की ,भ्रूण हत्या करना पाप है -वर्तमान में अभियान भी चल रहा है बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ लेकिन वास्तविकता से जो बिलकुल परे है। वो अभियान सिर्फ दीवारों पर लिखने और सरकार के पोस्टर के बिकने के लिए है। औरत को कत्ल करने के मामले ,नवजात बच्ची का शव कूड़े के ढेर में मिलना - आज भी दहेज़ के ही नवविवाहिता को मरना और वर्तमान में सबसे ज्यादा हवस के पुजारियों द्वारा औरतों को अपना शिकार बनाकर अपनी दरिंदगी की प्यास बुझाना। आजकल हालात कुछ ऐसे है ही समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में भी आपराधिक गतिविधियों की ख़बरें ज्यादा होती है।  कई बार तो दिल्ली जैसे कांड सामने आज भी आते है तो रूह कांप उठती है की देव-ऋषि-मुनियों की इस धरती पर कैसा ये कलयुगी मानस जन्म ले रहा है।

जब भी कोई त्यौहार या पर्व आता है आरती के गुणगान के बरावर औरत को स्थान दिया जाता है।  लेकिन सत्य रूप से औरत के साथ समाज में अन्याय होता है। पूर्ण रूप से इसके लिए पुरुष वर्ग ही दोषी नहीं है।  कई स्थानों  या बातों में औरत भी इस कथनी और करनी में बराबर की हिस्सेदार होती है।
अक्सर पढ़ा और सुना होगा -
गरीबी मर्दों के कपडे उतरवा देती है
और अमीरी औरतों  के ( इसका उदारहण अगर प्रत्यक्ष रूप से देखना होगा तो अपने नज़दीकी किसी भी मॉल या मार्किट में चले जाइये साफ़ दिखेगा )
लेकिन आज भी जहाँ महिलाओं साथ समाज में हो रहा है एक घर के भीतर हो रहा है सबसे अधिक ऐसे केसों में महिला ही महिला के अपमान, निरादर , यहाँ तक की मौत की भी ज़िम्मेदार होती है।
साधारण सी बात है - जब भी कूड़े के ढेर या किसी आवारा कुते के मुह से कोई बच्ची मिलती है तो उसे छोड़ने वाली माँ का दिल कैसा होगा। जब एक बाप  अपनी ही बेटी और एक भाई का अपनी ही बहन से दुष्कर्म का मामला सामने आता है तो उस भाई की मानसिकता कैसी होगी। समाज में जब किसी की बहु बेटी का मजाक उड़ाया जाता है - तो उस हंसी के पीछे अंदर ही अंदर जलकर भाप बनने वाले आंसुओं की तपस क्या होगी। इसको कोई समझ नहीं सकता और न ही जान सकता है। लेकिन समाज की मानसिकता तो कहीं न कहीं आईने पर लगे दागों की तरह साफ़ दिखाई देती है कि --   दिवाली आई तो लक्ष्मी पूजा , लक्ष्मी के रूप में बेटी आई तो काम दूजा। 

ज़मीनी हक़ीक़त ..... तो कभी नहीं बदलेगी देश की दिशा और दशा ?

  हर छोटा-बड़ा नेता और फिल्मो अभिनेता यही कहता कि हम देश की दिशा और दशा बदलेंगे। फ़िल्मी बातें तो काल्पनिक है लेकिन जो वास्तविक है वो समाज में सरेआम है। हर कोई भलीं भांति वाकिफ है की कौन क्या कर रहा है: लेकिन उस पर या तो हमारे ही होंठ बंद जाते है या  आंख और कान से हम अपँग हो जाते है. वर्तमान में भी कुछ है हर राजनितिक पार्टी देश को बदलने की बात कर  रही है। ये जूठ नहीं बदलाब हुआ है। इतना बदलाब हुआ है कोई  नेता कभी हाथ से मौका नहीं जाने देता विपक्ष को लपेटे में लेने से। लेकिन अब इन राजनितिक पार्टियों में एकता और अखण्डता की बात भी खत्म सी होने लगी है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश की बात करें या पंजाब की दोनों ही राज्यों में वर्ष 2017 में चुनाव होने वाले है। 

जिसको लेकर हर पार्टी जनता को लुभाने में जुटी हुई है। इसी बीच पार्टियों की अंदरूनी कलह बाहर खुलकर आने लगी है। चाहे वो सपा के मुलायम सिंह यादव का तंज़ हो या फिर आप के सुच्चा सिंह छोटेपुर की खुद की अढाई साल की कहानी। दोनों से साफ़ है जिस परिवार के भीतर ही क्लेश है वो बाहर किसी को क्या सही दिशा दिखाएगा - किसी की क्या दशा सुधरेगा। बचपन में पढ़ा था कि जिस परिवार में कहल हो बुद्धिमान और विद्वान उस स्थान को ही छोड़ देते है। लेकिन हम कुछेक राजनेताओं के द्वारा भ्रष्ट किए हुए देश को नहीं छोड़ सकते। पर नेताओं और इनकी बनाई हुई नीतियों से जरूर मुह मोड़ सकते है। प्राथमिक शिक्षा  लेकर माध्यमिक तक सबने पढ़ा है बुरा मत देखोबुरा मत सुनो, बुरा मत  बोलो और अब बुरा पढ़ो भी क्योंकि इन नेतओं के द्वारा कभी कभी ऐसे बयान दिए जाते है की न्यूज़ में सुनना तो दूर न्यूज़ पेपर में पढ़ना भी सही नहीं -- (किस्सा याद गयागॉव की बात है अपनी पड़ोस में आंटी से अखबार मांगने गया तो उहोने मुझे काफी धरातल से जुड़ा हुआ बयान देते हुए कहा -: हमने अखबार लेना बंद कर दिया इतना अनाफ सनाफ़ होता है ,हर चौथे पेज़ पर तो लड़की से हुए गलत काम (बलात्कार) की खबर होती है। बच्चों के सामने और घर में हर कोई कहीं ना कहीं अखबार लेकर बैठा रहता था तो ऐसे में कैसे अखबार पढ़े और आजकल तो लीडर भी कुछ भी बोल देते है ऊपर से अखबार वाले भी बड़े बड़े अक्षरों में लिखते है - दूर से ही नज़र हो जाती है ,खबर तो तेरे अंकल को बोल कर मैंने अखबार ही बंद करवा दी )  - ये बात भी सच है - नेताओं के ब्यानों और उनके विचारों की तो हम रीस ही नहीं कर सकते है। साफ़ बात ये है की हर नेता आपस में एक  चरित्र पर कालख उछालने पर लगे रहते है। खुदा कसम:_- चाहे कश्मीर का मुददा हो या शहीद का प्रतिक्रियाओं में ही जंग शुरू हो जाती है। और किस्सा ख़त्म होता है सदन का वक़्त बर्बाद करके। जिस देश में देश के कर्ताधर्ता और उसके  साथियों नहीं पता की देश किस दिशा में है और देश की दशा क्या वो देश तरकी कैसे करेगा। सत्ता और विपक्ष को तो बयानों पर प्रतिक्रिया देने से ही वक़्त नही तो काम कैसे करेंगे , कौन करेगा। आपत्ति जनक टिपण्णियों से देश की जनता का पेट भरेगा।

ज़मीनी हकीक़त : कहीं मंहंगे भक्त, कहीं सस्ते भगवान्

  आजकल नया दौर शुरू हो गया है, महंगे और सस्ते का जोकि हमारे समाज का एक स्टेटस सिम्बल है ।  जिस मंदिर मस्ज़िद गुरुद्वारा सब मे हर धार्मिक स्थान पर सबको एक बराबर समझा जाता है वहां आज सब शायद सामान नहीं है। क्योंकि अगर किसी भी धार्मिक स्थान पर कोई नेता या उच्च दर्ज़े का अफसर पहुँचता है तो उसके लिए प्रवेश द्वार से लेकर बहार निकलने तक  उच्च कोटि के प्रबंध होते है। उक्त व्यक्ति या नेता के लिए पूरा प्रशासन सतर्क और जनता परेशान होती है।

 इसी बीच आजकल प्रभु  दर्शनों ने  भी रेट लगने लगे है-पर्चियां काटी (जोकि मंदिर या भवन विकास के लिए प्रयोग में लायी जाती है ) जाती है। कोई पर्ची 10 देकर लेता है तो कोई 10 हज़ार, हर कोई अपनी पहुँच के अनुसार पर्ची कटवाता है। लेकिन यहाँ भी भेड़ चाल देखि है - देखा देखि होती है। ( यहाँ किसी व्यक्ति विशेष की बात नहीं करूँगा क्योंकि  वर्तमान में सबके साथ वास्तविक तौर पर होता हैं। ) जहाँ सरकारी अफसर दर्शनों के लिए किसी कतार में न खडा होकर सीधा द्वार तक पहुँचता है। वहीँ आम आदमी घंटों इंतज़ार कर मेहनत से मिष्ठान ग्रहण करता है। कहीं कही तो रेलवे टिकेट की तरह पहले ही बुकिंग हो जाती है कि आज श्रीमान नेता जी आने वाले है - विशेष कपाट खोल दिया जाए।जिससे  साफ़ जाहिर है कि कहीं मंहंगे भक्त, कहीं सस्ते भगवान् और कहीं  मंहंगे भगवान्,कहीं सस्ते भक्त।

ज़मीनी हकीक़त : भगवान् के दम पर धनी

प्रथा आजकल ज्यादा प्रचलित है और यहीं प्रथा नवरात्रों या उपहारों में ज्यादा शुरू हो जाती है। चौराहों में शहरों में बाज़ारों में और परिवहन निगम स्थानालाय में ज्यादातर। एक बच्ची -औरत एक  थाली में एक माँ शेरां वाली की मूर्ति या तस्वीर (या  किसी दूसरे भगवन की) लगाकर बस में सफर करने वालों को आशीर्वाद देती है। उनको ढेर सारी  दुआएं देती है। और बदलमे क्या लेती है सिर्फ 10 -15 रूपये। अगर 10 -15 रूपये में जग -जुग जियो , खूब तरकी करो- सब इसी में हो जाये तो रोज़ जीने के लिए 10 -15 रूपये बस में माता के नाम देकर शाम को दो चार घूंट मदिरा और तरकि के लिए चोरी डकैती या फिर वेहला बैठा रहता हूँ क्यों मेहनत करनी।
सही है - भगवान् की तस्वीर लेकर घूमने से अगर महल और रोटी मिल जाए तो यही काम अछा है - और शायद व्यापार भी यही अच्छा रहेगा -एक टीम बनाकर रख लेता हूँ और उनकी ड्यूटी लगा लेता हूँ। उनको भी रोज़गार मिल जाएगा और मुझे व्यापार मिल जाएगा। भगवान के नाम का -लोगों को आशीर्वाद देकर उनसे उनकी मेहनत का पसीना बून्द बून्द लेता रहूँगा। मेहनत तो इसमें भी लगेगी पर भगवान् के दम पर धनी  बन जाऊंगा।
सही बात है - या नहीं ये तो आपको ही भली भांति ज्ञात होगा - भगवान को भगवान के नाम को व्यापार न बनाएं  और राह चलते हर इंसान को पैसे देकर भिखारी न बढ़ाएं।