रविवार, 11 जनवरी 2015

poem of the wind

कशिश ए तमन्ना होती है निगाहों से ‘
धुप या छाओं हो रहना चाहूँ तेरी निगाहों में ‘
और जन्नत की चाह रखते है ज़ीने के लिए
हम गर्त तक जाएंगें शाकी तुझे पाने के लिए ‘’
दीन मेरे अमान ,रूह ए रमजान
 क्या है शाकी रूह ए फ़रमान ;;
राजी है तू खुदा की रहमत में
बता तो सही खिदमत है किस रज़ा में .
कशिश ए तमन्ना होती है निगाहों से ‘
धुप या छाओं हो रहना चाहूँ तेरी निगाहों में ‘
आज फिर उमस सी उठी है सीने में
क्या रखा है ज़ीने में
महखाने में जाकर आऊँ..
 आग बुझाकर आऊँ



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