कशिश ए तमन्ना होती
है निगाहों से ‘
धुप या छाओं हो रहना
चाहूँ तेरी निगाहों में ‘
और जन्नत की चाह
रखते है ज़ीने के लिए
हम गर्त तक जाएंगें
शाकी तुझे पाने के लिए ‘’
दीन मेरे अमान ,रूह
ए रमजान
क्या है शाकी रूह ए फ़रमान ;;
राजी है तू खुदा की
रहमत में
बता तो सही खिदमत है
किस रज़ा में .
कशिश ए तमन्ना होती
है निगाहों से ‘
धुप या छाओं हो रहना
चाहूँ तेरी निगाहों में ‘
आज फिर उमस सी उठी
है सीने में
क्या रखा है ज़ीने
में
महखाने में जाकर
आऊँ..
आग बुझाकर आऊँ
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