हर पन्ने को बदला
हर लफ्ज़ पर आँखों को
रगडा
उन आँखों में टूटे
हुए सपनो को देखा
जो सोने नहीं देते थे
कभी .........
हर पंक्ति की एक ही
धारा
हर मज़बूरी का एक ही
सहारा .........
आज फिर से मजबूर हूँ
लिखने को एक व्यंग्य
रस धारा .......
सुना था ,, देखा था
पुजारियों को पूजा
करते
एक नया रूप मिला
मुझे
मानवता के मात्थे पर
कलंक धरते .....
जब भी पढ़ता हूँ
जब भी पढ़ता हूँ
सन सी हो जाती है
रूह
हवस के पुजारियों को
क्यों नहीं गर्त तक
ले जाती है रूह .....
बेवस लाचार सी हो
जाती है मेरी कलम
क्या तर्क उठाऊं ,
किस मुद्दे को सुलझाऊं ,,,,,
कौन सी पंक्ति लिखूं
ताकि हवस के
पुजारियों पर
अंकुश अन्तकाल तक
लगा जाऊं .......
क्या उनकी नहीं है
माँ बहन और बेटी
क्या है उनकी भी इच्छा
वो भी हो किसे के
निचे लेटी ???
शर्मसार होता हूँ
रोज़
पंक्तियों को
पृष्ठों में पढ़कर
हो जाती है एक नहीं
दस आबरू तार तार
चाँद डूबने के बाद
जब आता है रवि चढ़कर उस पार ....