शनिवार, 11 जनवरी 2014

AKSHE -E - DASTAAN

जोड़ कर लफ्ज़ों की,
परवाह करता हूँ शब्दधारा, 
मुझे तो है शाकी वस,
कलम की नीवं और,
खाली पन्नो पर.
 स्याही का सहारा।

बैठा हूँ चुप शांत मै 
आती है आवाज़,
लेता हूँ साँस मै,
क्या करूं किस दीशा जाऊं,
ठगर ना कोई मै भाऊँ।

तय होते हुए भी मंजिल,
कदम ना एक बढ़ाऊँ,
जनता हूँ सफर है लंबा,
फिर भी बैठा हूँ,
व्यंग्य नये मन में भरता जाऊं।

रूह ने भी मुझसे सवाल किया?
'सुनील' तूने क्या कमाल है किया!
राह लेकर लफ्ज़ों की इतिहास रचाएंगे,
अक्षर - ए -दस्तान् बनाएंगे।,,,
          सुनील कुमार 'हिमाचली'