गुरुवार, 20 सितंबर 2018

युवा देश की रंगीन सोच और अकेलापन ( दिमाग खराब है )

( खोटा सिक्का ) आपने बचपन में कहावत सूनी होगी. या आज भी कभी-कहीं कहते सूना होगा, कही भी होगी. सिक्कों का पता चल जाता है कि खोटा है  या नहीं,  पर नोट एक का हो या 2 हजार का कभी पता नहीं चलता खोटा है या नहीं. जरा सी भी फट जाए- फिर तो गया काम से. जैसे मां-बाप बेटी का कोई कसूर नहीं निकालते पर , बहु के बारे में घर क्या -  गांव भर में उसकी चर्चा होती है.  जिंदगी मे मां-बाप के लिए उनकी (कुछेक ) औलाद भी नोट की तरह ही है. और कुछेक ने अपनी जिंदगी ऐसी बना ली है. रंगीन नोट- शायद आपने भी तो नहीं ---

शायद हां- अकेला नोट जेब में पड़ा हो तब खुशी होती है लेकिन अगर वो चिल्लर हो जाए फिर जिज्ञासा रहती है यार पैसे कम हैं. शायद सही है. जिसके पास सौ हैं वो भी सुखी नहीं. जिसके पास गिनने का वक्त नहीं वो भी सुखी नहीं. हमारी मम्मी अकसर यही बात कहती हैं. साथ ही यह भी कहती है कि कम मे गुजारा कर लो पर खुश रहो - ज्यादा की इच्छा दुखी कर देती है.( जिन्होंने किसी लड़की या लड़के से प्रेम किया है वो इस बात को समझ सकते हैं. )

पर अब पॉकेट में ज्यादा है या कम यह गम नहीं. हां -गम इस बात का है कि क्यों परिवार होने के बावजूद भी एक ऐसे शख्स की तलाश रहती है, जो हमारी सुने- हम बिना किसी संकोच के उससे हर बात शेयर करें. जिसे हम अकेलापन भी कहते हैं या समझते हैं. पर अकेलापन खत्म होने पर कई दफा दर्द देकर चला जाता है.  अब जिंदगी रंगीन कैसे हो ------ आजकल जो इंडियन करंसी का गुलाबी रंग है. फिर नोटबंदी के बाद और रंग में नोट आ जाए यह कहना अभी संभव नहीं , लेकिन इन रंगीन नोटों के चक्कर में आज के युवा की जिंदगी रंगीन नहीं है. यह वर्तमान का परम सत्य है. 

युवा देश की जवां सोच या लालसा - एजुकेशन के वक्त लव-सब,  ठीक है भई करो - कौन मना करता है. लेकिन कैरियर भी बना लो. पता बात क्या है या थ्री इडियटस टाइप का कैमिकल लोचा-- सब कुछ जल्दी -जल्दी हासिल करना है. स्टैप टू स्टैप नहीं. फिर जब दो सीढियां एक साथ चढ़ोगे तब पैंट अपनी ही फटती है. चाहे जिन्स की कोई सी भी कम्पनी की हो. या वो फट जाती है. या गिरा देती है.
पहला स्टैप- एजुकेशन,,,  दूसरा- कैरियर,,   तीसरा- लव,,, चौथा- शादी 

अब हम करते क्या हैं , दूसरे नंबर को हमेशा ही इग्नोर करते हैं. चाहे वो कोई भी फील्ड हो. अब एजुकेशन के साथ लव और फिर कैरियर ऐसा करोगे. फिर तो गलत है न भई...... (कुछेक मामलों में 67 फीसदी तक )

अच्छा जब पैसे कमाने का टाइम आया तब अकेलापन, क्योंकि पैसा .या पॉजिशन नहीं थी तब प्यार ने भी लात मार दी. और अब पैसा है तो अकेलापन खाने को दौड़ता है. क्योंकि हालात ऐसे हैं कि परिवार से भाई-बहन से कई बातें शेयर करने की हिम्मत नहीं होती. वैसे बु्द्धिमता इसी में है कि परिवार को कोई कष्ट न दें.

अब ऐसी स्थिति में क्या किया जाए.. कोई है क्या ------ जो सुन सके-- कोई भी नहीं - क्योकि विश्वास जिनपर था वो अब उस पात्र के काबिल नहीं रहे - जिन्हें बयान कर सकें.  फिर शुरु होता है युवा ल़ड़की और लड़के के दिमाग में कैमिकल लोचा. अब जिंदगी में रंगीनियत खत्म सी हो गई है. जो घर से बाहर रहकर जॉब या स्टडी कर रहे हैं, वो इस अकेलेपन का शिकार हो चूके हैं.

अब इस अकेलेपन में रंगीनियत और नियत दोनों एक सिक्के के दो पहलु हैं.  गौर रहे रंगीन नोट नहीं, अच्छी नियत से खुश रहकर जिंदगी जियोगे तब रंगीनियत रहेगी. तब लोग भी कहेंगे - यार उसको कोई चिंता ही नहीं. कैसा करता है सब...  चाहे दिल में गम हजार हैं हजूर- लेकिन खुद की जिंदगी को खुश करने का है फितुर

इसलिए अकेलापन बांटने के लिए ऐसा साथी रखो - जिसे खोटे सिक्के की भी कदर हो. रंगीन नोट से कहीं ज्यादा,  एक दौर में आपने दूरदर्शन पर रंगोली में गाना सूना ही होगा. गौरे काले का भेद नहीं - हर दिल से हमारा नाता है,,,... शो इग्नोर - किसी की शक्ल, अकल और आवाज को मत देखो जनाब - सब धोखा है, उसके चरित्र को देखो- वो आपके साथ कैसा व्यवहार रखता है, आप पर विश्वास करता है या टाइम पास- चाहे वो आपके बाकि जानकारों की नजर में कैसे है. सबसे अहम है अपकी जिंदगी में उसका क्या किरदार है- आप उसके साथ खुश हो , वो आपकी भावनाओं को समझे... अब इश्क-विश्क की बात नहीं- परहेज है... हाजमा खराब होता है-  नींद नहीं आती,

 इश्क करना है तो खुद से करो यार - तभी आपको सामने वाला उतनी ही गहराई से करेगा. जितनी गहराई से आप खुद से करते हो. कसम खुदा की खुद की खुशी का ही ठिकाना नहीं होगा. फिर देर किस बात की है... भई..
खुश रहो- आबाद रहो - जिंदादिल रहो... चाहे दुनिया कहती रहे- दिमाग खराब है......

बस याद रखिएगा. - गांठ बांध के--- चलो आजकल गांठ कोई नहीं बांधता - और ऐसी एप्प भी नहीं हम कोई जानते. जो आप अपने फोन में रख लें. इसलिए दिमाग की हार्डडिस्क में सेव करके ऱखिएगा... ठीक है.....

जीवन में चरित्रहीनता से बढ़ी हिनता कोई नहीं होती.. अमीरी झूकने में झूकाने में नहीं. खास कर वर्तमान समाज के परिवेश में रिश्तों को संभालने के लिए जनाब... अब मत लो अकेलेपन का खाब.. नहीं तो दिमाग होगा खराब.... ठीक है..




सरिता... स्त्री हटो, सर्वो हटो परि ( दिमाग खराब है )

बचपन में हमारे हाथ कभी-कभार एक पुस्तिका लगती थी. आजकल उस पत्रिका को देखे अरसा हो गया. हां- उसका ऑनलाइन एडिशन उपलब्ध है .ये अब ज्ञान पड़ा . उनकी कहानियां, विचार , राजनीति व जीवनशैली का अनोखा संगम- नाम सरिता .वैसा ही रुप सरिता का है -- इसमें कोई दोराय नहीं- क्योंकि हमने भी सरिता को ऐसे ही देखा है. एक ख्याल भर के लिए जब विचार किया- महसूस भी यही किया.

(  वैसे भी सरिता का पर्यावाची नदी , धारा है. मूलांक - 5, लिंग- स्त्री.- फिर महाशय आप जान लीजिए- स्त्री हटो, सर्वो हटो परि  )

वाक्य में सरिता का ये अंदाज कभी नहीं देखा. जो अपने अंदर न जाने कितने सपनों को संजोए बैठी है. लेकिन शांत है, उस नदी की तरह जो बहती हवा को रुख देख के अपनी मदमस्त चाल से हैं. पर उसके उफान - उसके सब्र का बांध कब टूट जाए, कुछ पता नहीं होता.अब संयोग की बात यह भी जान पड़ी की . जिस सरिता को हमने बचपन में देखा है. वो आज न जाने  नदी की तरह कितने ही समुद्र को अपने आगोश में लिए हुए है.

गंगा मैया में हम ढूबकी लगाने हर साल जाते हैं लेकिन उस ढूबकी के साथ न जाने क्या-क्या वहां ढूबो कर आ जाते हैं. पर गंगा मां कुछ नहीं कहती- बस कभी-कभार शांतमय ढंग से विक्राल रुप ले लेती है. फिर सब चिल्लाते हैं बाढ आ गई. अब किसी के आगोश  में रहकर अंदर ही अंदर उसको दुखी करोगे तब वो  इंसान करे- तो- करे भी क्या.

कुछ ऐसे ही दौर से सरिता भी गुजर रही है. जिनपर विश्वास किया - उन्होंने आहत करने के सिवाय कुछ सलीका नहीं दिया. अब ऐसी स्थिति में- आम सी बात हो गई है, आजकल की दुनिया में विश्वास किस पर करें. हां भई- किसपर करें- सब विश्वास में घात लगाकर बैठे हैं .

लेकिन सरिता का सालों पहले देखा चेहरा और अंदाज अब काफी बदला हुआ है, उसकी आंखों में कुछ पाने की ललक, चेहरे पर रौनक जो बुद्धिमता और शालीनता को दर्शाता है. आवाज में बाइब्रेशन है- सालों बाद सुनी तब यह  भी जान पड़ा की इंसान अंदर से निराश है. लेकिन सालों पहले और अब - सही में
माना के बदलाव प्रकृति का नियम है- लेकिन ऐसा भी क्या की इंसान कुंठित अवस्था में होकर खुद को ही बदल दे. अब इतना तो तय है कभी -कभी जिस सरिता को हम जानते हैं  वो पल भर के लिए  आज की सरिता  आती है, लेकिन जो जख्म भरे नहीं .... उनको फिर हरा कर जाती है. और आज की सरिता फिर फोन में से अपना दृष्टिकोण तलाशती है. अब विश्वास फोन- और सोशल मीडिया में कैसे मिलता है- आप सबको पता है, इसके बारे में दिमाग खराब फिर करेंगे.
 
हां विश्वास कि जो परिभाषा हमारे लिए है-  एक आस जो हम किसी न किसी से किसी भी रुप में लगा कर बैठे हैं. पर क्यों हर कोई रिश्तों के आधार को तार-तार कर रहा है. पर इंसान की एक बात यहां पर तारीफ के काबिल है. एक बार- दो बार - दस बार , विश्वास घात होने के बाद भी कुतुब मिनार की तरह खड़ा  है,  चाहे दिल में दर्द ठीक वैसा हो जैसा ताजमहल बनाने के बाद मजदूरों को दिया गया हो. ठीक ऐसी ही आदत सरिता की है. जो शायद अंदर में एक सैलाब लिए बैठी है, लेकिन कठोर है , जिसका अनुभव काफी कुछ बयान करता है. और ऐसे ही इंसानों से सिखने के मिलता है- जिंदगी मे जो भी स्थिति आ जाए. खुद को कैसे संभालना है. तूफान वाले मंजर को बिना आंखे झपकाए कैसे सहन करना है. मतबल अंदर ही अंदर इंसान रो रहा होता है लेकिन चेहरे पर खुशी झलकती है - बेशक आज आंखों के नीचे काले घेरे हुए पड़ें हो.

 लेकिन वर्तमान मे अगर कोई अड़िग है तब आम सी बात भी होते देखी है,. उसको गिराने में चंद राह के मुसाफिर भी कोई कसर नहीं छोड़ते .जो दोस्त और हमदर्द बनके - मतलब निकाल कर किसी और डगर निकल लेते हैं. हां- नदी में भी कई छोटे- मोटे नाले आकर मिलते हैं. और बाद में बड़ी शान से कहते हैं. हम सागर में जा मिले .पर भूल जाते हैं. ये पानी है इसका इतिहास सिर्फ नदी से ही जाना जाता है.
औऱ नालों की तरह की आज के दौर में वैस भी जनता विश्वास की आस में घूमती है. गाना सूना ही होगा- पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले- झूठा ही सही... 
अब इन पंक्तियों का जिक्र और फिक्र दोनों ही विश्वास की उस  नदी के तट पर हैं जिसका संगम कभी हो नहीं सकता. दो किनारे किसी तट के हमने यूं मिलते नहीं देखे- आपने देखें होंगे तब हमे भी बताइएगा.

तब तक हम भी शायद बदलाब देख लेंगे की सरिता अब जिंदगी के बहाब में ठीक वैसे ही है- जैसी बचपन में थी. हां एक बात और भी याद आई- आपने भी कहीं न कहीं पढ़ी ही होगी. जिंदगी जीना बच्चों का खेल है- बढ़ों का नहीं. .. इसलिए खुश रहो, आबाद रहो और जिंदाबाद रहो.  खुद पर विश्वास करो- और हरेक छोटी सी खुशी के लिए भी भगवान का शुक्रगुजार रहो.
नहीं तो दिमाग खराब है ही.... कुछ और कर लेना. लेकिन बुजदिलों की तरहा नहीं जिंदादिलों की तरह,.