शनिवार, 17 जनवरी 2015

अक्षर-ए-दास्तान

अक्षर-ए-दास्तान


बहुत देर से एक अधूरी-सी
 रोशनी में बैठा था
चढ़ते सूरज से... ढलते चाँद तक
ना जाने कितनी बैचेनियां पाल बैठा था
अंधेरों की जिंदगी जो मेरी   उसके चिराग में..
वस -. एक सुकून की तलाश में
आज भी सहम जाता हूँ
देख अपने गुलिस्तां की हालत
सिक्कों का मोल यहाँ
तराजू जो दिल का उसका तोल कहाँ  ?
कोई तो सुनेगा मेरी पुकार
है जो आज बेवश जिंदगी , लाचार मेरी
होगा कहीं फरिश्ता कोई
जो सुनकर मेरी आवाज
जला देगा सुनील जिंदगी का चिराग
तब लिख देंगे नई

अक्षर-ए-दास्तान 

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