शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

जानते हो.. बेरोजगारी नहीं, सब दिमाग की बिमारी है

पिछले एक दशक से भारत में एक ऐसी बीमारी ने जन्म लिया है जिसका इलाज शायद ही हो. हां -उस बिमारी का नाम सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के मैनिफेस्टो में ज्यादा पढ़ने को मिलता है.या फिर सियासतदानों की जबानों पर जब यह भाषण दे रहे होते हैं. अब मसला यह है कि एड़स का हल हो जाए लेकिन शायद इस बिमारी का नहीं। एक वक्त हमने ही कहा था कि रोजगार का गम प्यार के गम से कहीं लाख बड़ा होता है. इस बात में कोई दोराय नहीं। वाक्य में ही अगर रोजगार नहीं हो फिर बीबी तो दूर की बात प्रेमिका भी लात मार कर चली जाती है. अक्सर कईयों ने यह बात कही या सूनी होगी,

पर बेरोजगारी है कहां भई यह भी बताओ- जिनके पास रोजगार है वो दूसरे-चौथे दिन सरकार की अर्थियां निकाल कर किसी चौराहे पर बैठे होते हैं. और जो रोजगार चाहते हैं वो सिर्फ तलाश करते हैं कुर्सी की. बस भई कुर्सी पर बैठना है चाहे जो मर्जी हो - और ये कुर्सी की लालसा उनको या तो कोलसेंटर पहुंचा देती है या फिर घर पर एक खूंटी से बंधवा देती है.
अब वास्तिविकता में जो बात है वो यहां आकर खत्म हो जाती है कि हमें काम नहीं करना है आराम करना है. और भारतियों के मेहनतकश हाथों पर भ्रम की मेंहदी लग गई है, जिसमें लड़ियों की संख्या से तीन गुना ज्यादा लड़को की संख्या होगी। ( हमारी हिमाचली में एक कहावत है- नाईया बाल केडे-केडे, भाउ बस मुंया गां ही औणें ) वस यही हिसाब हमारे देश के नौजवानों का है. जिसमें अधिकतर बीटैक किए हूए हैं.  जो रोज रात को एक मकान गहरी नींद में जाने से पहले बनाते हैं और सुबह आंख खुलने से पहले बिस्तर पर खुद को पाते हैं.

बीटैक किए आपके भी कुछ दोस्त होंगे- जिन्होंने या तो फील्ड ही चैंज कर दी होगी या फिर कहीं कम वेतन में गुजारा कर रहे होंगे। यह अकेले बीटैक वालों की बात नहीं है और भी कई महानुभाव है जिन्हें शौंक सिर्फ एसी कैबिन में कुर्सी पर बैठने का है. अब हमारी सरकार इतने कैबिन तो बना नहीं सकती , हां आश्नासन दे सकती है. 5 साल के लिए - उसके बाद- आना हो या नहीं यह उनको खुद पता नहीं,

वर्तमान में हालात कुछ ऐसे हुए पड़े हैं कि मजदूर काम करने को नहीं मिल रहा. ठेकेदार चार लोगों वाला काम एक से करवाने को मजबूर हुआ पड़ा है. क्योंकि गांव के युवा शहर का रुख कर गए. और शहर के विदेश का या किसी दूसरे शहर का , वहां उन्हें बर्तन धोने मंजूर है - बेरोजगार घूमना मंजूर है , लेकिन मजदूरी नहीं कर सकते भई.

एक लकडी का काम करने वाला- मजदूरी और एक आर्किटैक्टर मजदूर नहीं
होटल में वेटर का काम करना सही- गांव में खुद की दूकान या मेहमान नबाजी करना मजदूरी
फैक्टरियों में पलंबर बनो या फीटर वो मजदूरी कर लोगे, लेकिन आईटी होल्डर 8 -10 गांवों से जुडकर अगर काम करेगा तब उसको शर्म आएगी और भी कई ऐसे उदाहरण है, जिन्हें काम करनी की शर्म आती है जनाब- कहीं कोई बेरोजगारी नहीं। हां- सरकार भी कहती है बेरजगारी दूर करेंगे- कैसे करोगे सरकार- जहां लोगों को काम करने में शर्म आती है.    


अब कहो बेरोजगारी- अरे भई कोई काम करने वाला तो बने- नौवत यह आ गई धीहाड़ी वाले नहीं मिलते  है, सबको कुर्सी पर भारत में बैठना है, और भारत के बाहर चाहे बर्तन धोने मंजूर हैं. अगर साथ काम करने वाले को भी कह दो यार यह काम कर देना , तब वो उस काम को भी बोझ समझता है. चाहे वो उसके हित का ही क्यों न हो. अब बीमारी जो हुई पड़ी है, बेरोजगारी की , तभी शायद  दिमाग खराब है।