शनिवार, 17 जनवरी 2015

अक्षर-ए-दास्तान

अक्षर-ए-दास्तान

कलम आज भी उठती है
चलती है ,रुक  जाती है
मेरे ही इशारों की गुलाम ये
मुझे  भी अपना मुरीद बनाती है !
शांत सी ,बेजान सी
मेरी जिंदगी की पहचान भी
अपने ही जहन की दस्तांन
लिख देता हूँ  ...... करके गर्त तक ब्यान  !
क्या हो गई गुस्ताखी
मेरे जिवंत रंग को देख लगता है .
आ गई है इसके चहरे पर उदासी
कोई तो सुन रहा होगा
आज मेरे सखा की पुकार
जिस कलम को नहीं नसीब
 अब पन्नों की बहार !
क्या करूं अब सुनील
क्या यहीं तक थी

तेरी अक्षर-ए-दास्तान !

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