अक्षर-ए-दास्तान
कलम आज भी उठती
है
चलती है ,रुक जाती है
मेरे ही इशारों
की गुलाम ये
मुझे भी अपना मुरीद बनाती है !
शांत सी ,बेजान सी
मेरी जिंदगी की
पहचान भी
अपने ही जहन की
दस्तांन
लिख देता
हूँ ...... करके गर्त तक ब्यान !
क्या हो गई
गुस्ताखी
मेरे जिवंत रंग
को देख लगता है .
आ गई है इसके
चहरे पर उदासी
कोई तो सुन रहा
होगा
आज मेरे सखा की
पुकार
जिस कलम को
नहीं नसीब
अब पन्नों की बहार !
क्या करूं अब सुनील
क्या यहीं तक थी
तेरी अक्षर-ए-दास्तान !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें