रविवार, 16 सितंबर 2018

दिमाग खराब है - अध्याय एक

रात से सुबह और सुबह से शाम हो रही है. कई दिन हो गए हैें दिभाकर को भी नहीं देखा है. यूं अखबार से और मोबाईल फोन से पता चलता रहता है कि आज दिभाकर किस स्थिति में है और क्या हाल है. लेकिन ये भी सच है कि बचपन में जो आंख में आंख डालकर खेल- खेला जाता था, आज उसके लिए भी वक्त नहीं लगता . मशरुफियत इतनी कहां हो गई है . वो  हर मौसम में अपने वक्त से आता है , तय वक्त से एक सैकेंड लेट नहीं लेकिन आज दोपहर जब खाना खाने का मन हुआ कि आज बाहर कहीं खाना खाया जाए. तब जान पड़ा सूरज (दिभाकर ) को देखे ही अरसा हो गया है.

हां- बचपन में काफी जिद्दी था- आदत थी, जब भी वक्त लगता सूरज को देखने की हिम्मत किया करता था. अपने आप से ही नग्न आंखों से तपते सूरज को देख मस्ती किया करता था. अब ऐसी मस्ती को करने का न हमारे पास वक्त है और न ही शायद आपके पास . लेकिन अगर कभी मौका मिले तब आप भी करना कभी. सूरज यूं दिखता है जैसे उसके ऊपर कोई गोल ढक्कन घूम रहा है. ज्यादा देर देखने पर आपको सूरज के ऊपर जो ढक्कन घूमता दिखेगा यूं लगेगा - घूमता हुआ वो आपकी तरफ आ रहा है.  काफी अजीबो गरीब अनुभव है लेकिन कीजिएगा जरुर.

वैसे भी कई हमारे जैसे भी होंगे. जिन्होंने ढूबते हुए चांद और चढ़ते हुए सूरज को न जाने कौन सी सदी में देखा होगा. क्योंकि जब किसी अपने को मिले काफी वक्त हो जाए तब हम यही कहते हैं. सदियां हो गई - कहां थे भई-

अब ओरों को छोड़िए जनाब दिभाकर को आप कल या परसों सुबह मिल ही लोगे. लेकिन  कुछेक महानुभाव ऐसे भी होंगे जिन्हें खुद से मिले भी अरसा हो गया होगा. इसमें लडको की बात ज्यादा है- व्यवहारिक तौर पर लड़कियां अपनी शख्सियत से रुबरु होती ही रहती हैं. ऐसा करने के लिए वो एक वक्त था जब बाथरुम का आइन भी नहीं छोड़ती थी लेकिन अब मोबाइल का फ्रंट कैम उनकी शख्सियत को तसल्ली देता रहता है.

सही मायने में कहूं- अब हमें अपनेपन और अपनोें से मिले अरसा हो गया है, जीवन ऐसी स्थिति में है बस नाममात्र का अपनापन है. यूं कहें हम हर किसी से मतलब की बात करने का वक्त निकाल रहे हैं. और ज्यादा बात कर हैं . उनके रिश्ते वैसे ही जिंदगी में टीक नहीं पा रहे.

हां सच हैं- चंद पैसों के खातिर हम शायद मतलबी हो गए हैं, जिनके पास जिम जाने का वक्त है लेकिन मानसिक तौर से खुद को स्वस्थ करने का नहीं .  जो घर दो-चार महीने बाद जाते हैं आजकल मन बहलाने के लिए वीडियो कॉल का सहारा ले रहे हैं. इसी बहाने अपनों का फिक्र - जिंता के जिक्र से दूर हो जाता है क्योंकि जहन को तसल्ली मिल जाती है. दिन की भाग-दौड़ से चाहे जितना भी दिमाग खराब हो सकून मिल जाता है.

पर कई दफा दिमाग खराब होता है. जब वक्त पर घर न पहुंचा जाए. चाहे वो रोज़ या 2-4-6-8-10 महीने बाद.  फिर दिमाग - दिल से मुखातिब होकर कहता है-    काश..... शाम ढ़ले हम भी घर गए होते