गुरुवार, 28 मई 2015

akshar-e-dastaan by sunil k himachali

    अज़मता है जमाना सब्र मेरा
   बार-बार कर जिक्र तेरा
    धुआं हुए है बेशक अरमान मेरे
   राख होना बाकि है शाह ए शरीर मेरा
   फर्क  पड़ता नहीं अब खाक मुझे
   हो चूका है जो हीरा दिल मेरा
    रब तक कर इवादत
   गर्त तक जाना है तय तेरा
   अज़मता है जमाना सब्र मेरा
     बार-बार कर जिक्र तेरा