शनिवार, 17 जनवरी 2015

अक्षर-ए-दास्तान

अक्षर-ए-दास्तान


बहुत देर से एक अधूरी-सी
 रोशनी में बैठा था
चढ़ते सूरज से... ढलते चाँद तक
ना जाने कितनी बैचेनियां पाल बैठा था
अंधेरों की जिंदगी जो मेरी   उसके चिराग में..
वस -. एक सुकून की तलाश में
आज भी सहम जाता हूँ
देख अपने गुलिस्तां की हालत
सिक्कों का मोल यहाँ
तराजू जो दिल का उसका तोल कहाँ  ?
कोई तो सुनेगा मेरी पुकार
है जो आज बेवश जिंदगी , लाचार मेरी
होगा कहीं फरिश्ता कोई
जो सुनकर मेरी आवाज
जला देगा सुनील जिंदगी का चिराग
तब लिख देंगे नई

अक्षर-ए-दास्तान 

अक्षर-ए-दास्तान

अक्षर-ए-दास्तान

कलम आज भी उठती है
चलती है ,रुक  जाती है
मेरे ही इशारों की गुलाम ये
मुझे  भी अपना मुरीद बनाती है !
शांत सी ,बेजान सी
मेरी जिंदगी की पहचान भी
अपने ही जहन की दस्तांन
लिख देता हूँ  ...... करके गर्त तक ब्यान  !
क्या हो गई गुस्ताखी
मेरे जिवंत रंग को देख लगता है .
आ गई है इसके चहरे पर उदासी
कोई तो सुन रहा होगा
आज मेरे सखा की पुकार
जिस कलम को नहीं नसीब
 अब पन्नों की बहार !
क्या करूं अब सुनील
क्या यहीं तक थी

तेरी अक्षर-ए-दास्तान !

अक्षर-ए-दास्तान

अक्षर-ए-दास्तान

पल - पल  जहन  में एक ही सवाल
कर रहा है जो मेरा जीना मौहाल
नाराज क्यों है खुद ही - खुदा हमसे !
किसको सुनाऊँ अपना दर्द
क्या हो गया मेरे सीने में बढ़ते
दिनों- दिन इन जख्मों का हाल
जुडी है जहाँ मुझसे ,मुझी तक
 ओरों की भी जिंदगी !
अब बता ए बन्दे
किसे सुनील पुकार लगाउँ

किसे अक्षर-ए-दास्तान समझाऊं !

अक्षर –ए – दास्तान

अक्षर-ए-दास्तान

हरपल मुझे एक ही ख्याल
जहन  में मेरे उठाता ...  एक ही सवाल
जो देखा है मैने गुजरे वक्त तक
या जो देखा मैंने अभी वर्तमान !
क्या बोलूं ’’’ कहां से शुरू करूं
हर घर की नयी कहानी !
व्यक्त करूं जिसे ...अपनी जुवानी
वहां बैठा है कोई आपकी ताक में
निगाहों से पैमाने नाप के
निरतंर लगाए एक ही आलाप
वस है जो जिंदगी
सुनील कोई होगा यहाँ
सुन लेगा अक्षर-ए-दास्तान



अक्षर –ए – दास्तान

अक्षर-ए-दास्तान


आँखों में मेरी खाब कई
जिंदगी के मेरी साज कई
किस धुन में अब आपको बताऊँ
किस भाषा से आपको समझाऊँ
देख लेता अगर मंजर मेरा खुदा !
आज पुकार ना लगाता
ना ही कभी हाथ फैलता
वस गिर जाता नतमस्तक होकर
उस खुदा के आगे !
चाहे रख ले मुझे अब
चरणों की धूल में वसाके
सुनील के शब्द आज भी
अक्षर –ए –दास्तान है समझाते !



अक्षर –ए – दास्तान ,,,

अक्षर –ए – दास्तान


हर बार एक ही बात
हर पन्ने पर एक ही अलफ़ाज़
ये भी आई
वो भी गई
क्या कर गई हमारी सरकार !
क्या शुरू करूँ
क्या अंत धरुं
कौन सा कलमा लिखूं मै सरकार !
दिनों दिन बढते जा रहे है पन्ने
कुछ अछे
कुछ गंदे
जब उठाए हमने प्रश्न
कई दिग्गज हो गए नंगे !
रंग काला है
दिन काला नहीं
काले धन के पन्नो का
बिल काला नहीं !
एक दशक से उठ रहा सवाल
काले धन का हल
कर पाएगी सरकार ?
लिखने को तो लिखता रहूँ
पन्ने काले करके विकता रहूँ !
सुनील बनेगा नया इतिहास ?
या यूँ ही लिखता रहेगा
अक्षर –ए – दास्तान
जिसकी बढ़ रही विसात !