अक्षर-ए-दास्तान
बहुत देर से एक
अधूरी-सी
रोशनी में बैठा था
चढ़ते सूरज
से... ढलते चाँद तक
ना जाने कितनी
बैचेनियां पाल बैठा था
अंधेरों की
जिंदगी जो मेरी उसके चिराग में..
वस -. एक सुकून
की तलाश में
आज भी सहम जाता
हूँ
देख अपने
गुलिस्तां की हालत
सिक्कों का मोल
यहाँ
तराजू जो दिल
का ? उसका तोल कहाँ ?
कोई तो सुनेगा
मेरी पुकार
है जो आज बेवश
जिंदगी , लाचार मेरी
होगा कहीं
फरिश्ता कोई
जो सुनकर मेरी
आवाज
जला देगा सुनील
जिंदगी का चिराग
तब लिख देंगे
नई
अक्षर-ए-दास्तान