बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

रूह - ए - कलम

रूह - ए - कलम

कोई आशा नहीं है
अब इस जग से।
पर्वत की तरह
गरूर में खड़ा है हर कोई।

झुकना नहीं आता किसी को
नफरत से भरा है हर कोई।
सबका रामबाण यहां एक ही इलाज़
जिसके पास पैसा उसके बने काज़।

बिक रहा है आज भगवान भी
दर्शन करने के लिए भी बन रहे 'पास'
फिर भी न जाने क्यों ' दिल निराश '
जो है लाइन में खड़ा उसके चेहरे पर उल्लास।

न कोई दर्द - न कोई पीड़ा
फिर भी टुटा रहा विश्वास।
सुनील है जो ये 'रूह--ए- कलम'
अब तो यही है एक आश।



Roc - A - pen

Roc - A - pen
What can I do? Jag's all your own so
Yet why seeking no recourse,
Sky thinking, be your
Wings without air support -
I wish the whole world is walking,,
What can I do? There are limitations
So I want to embrace
Who live across its
To cross the barbed wires
May not be their gateway
'Sunil' change time
With the changing pages
  Spirit will also justice
Pilar! Running just wait
Like the resort to pen the pages.

रूह - ए - कलम

रूह - ए - कलम
क्या करूँ ! अपना ही तो है जग सारा
फिर भी क्यों तलाशूं कोई सहारा ,
आसमान सी हो सोच अपनी
बिना पंख हवा के सहारे -
घूमना चाहूँ जग सारा  ,,
क्या करूँ ! सीमाएं है -बाधाएं हैं
गले मिलना तो चाहूँ
जो रहते है अपने उस पार
कंटीली तारों को लाँघ कर
जा नहीं सकता उनके द्वार
'सुनील' बदलेगा वक़्त
बदलते पन्नो के साथ
 रूह को भी मिलेगा इन्साफ  
वस ! चल अभी इंतज़ार करें
कलम की तरह जिसे पन्नो का सहारा।  

हड़तालों का देश

हड़तालों का देश 

बड़ी ख़ामोशी से देखता हूँ दुनिया को 
कोई कसर नहीं छोड़ी है.
मसला कोई भी हो  
हर मुद्दे पर एक ही बात छेड़ी है ,
हड़ताल , विरोध ने हर राह है घेरी। 

मौका परस्तों को भी मौका मिला 
शुरू कर दिया वाह-वाही लूटने का शिलशिला 
नेता लोग भी बीच मैदान में आए 
गले लग- हमदर्दी दिखाए ,

बैठ होते है सुनील जैसे भी 
बीच झुंड में नारे लगाए 
करके वक़्त बर्बाद 
लौट बंधू घर को आए। 
पूछ लिया घर वालों ने -
कहाँ जाकर कुर्ते फ़ड़वाए 
लेकर नहीं ?
दो गुना बर्बाद करके हो आए। 
न काम पर गए - न कुछ जीत के आए। 

अरे ! किया होता बैठ के चिंतन थोड़ा -
हल हो जाता मसला सारा ,
मज़बूर हैं जो अब तक  समझ न पाए 
हल नहीं हड़तालों से
"हड़ताली देश के नागरिक "
हम न बन जाए  
सोचों समझों फिर कदम उठाओ 
हर कदम अन्ना जी की ओर न ले जाओ।