ग्रीन टी मुंह के कैंसर से लड़ने में कारगर हो सकता है। हाल में हुए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि ग्रीन टी में पाए जाने वाला एक यौगिक मुंह के कैंसर की कोशिकाओं को नष्ट कर सकता है, जबकि यह सामान्य कोशिकाओं को क्षति नहीं पहुंचाता।
गुरुवार, 29 जनवरी 2015
green tea ग्रीन टी मुंह के कैंसर के इलाज में कारग
ग्रीन टी मुंह के कैंसर से लड़ने में कारगर हो सकता है। हाल में हुए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि ग्रीन टी में पाए जाने वाला एक यौगिक मुंह के कैंसर की कोशिकाओं को नष्ट कर सकता है, जबकि यह सामान्य कोशिकाओं को क्षति नहीं पहुंचाता।
शुक्रवार, 23 जनवरी 2015
goal of boll
कहते है गेंद की तरह
है ये दुनिया
अंदर है जिसके बहुत
सी कहानिया ...
जब भी चाहा देख कर
खोलना मैंने ये पिटारा
बहुत कुछ कहने सुनने
लायक है जिसका नज़ारा ...
सहम सी जाती हूँ पल भर के लिए
देख कालचक्र में
जलते जीवन के दिए .....
तिरमिरा सी जाती है
भावशून्य
सुनकर उसकी जिवंत
दास्ताँ
उपलब्धियां कम नहीं
जिसके जीवन की
वस सपनों तक पहुंचने
से पूर्व
वक्त के हत्थों
बाजुओं की कम लम्बाई
जो आज बन गई है
जिंदगी में तन्हाई
कोई तो सुनेगा जिसकी पूकार
जो खड़ा है आज मझधार
पूकार एक अनसुनी
आवाज़
बुधवार, 21 जनवरी 2015
मंगलवार, 20 जनवरी 2015
gave punishment that animal
हर पन्ने को बदला
हर लफ्ज़ पर आँखों को
रगडा
उन आँखों में टूटे
हुए सपनो को देखा
जो सोने नहीं देते थे
कभी .........
हर पंक्ति की एक ही
धारा
हर मज़बूरी का एक ही
सहारा .........
आज फिर से मजबूर हूँ
लिखने को एक व्यंग्य
रस धारा .......
सुना था ,, देखा था
पुजारियों को पूजा
करते
एक नया रूप मिला
मुझे
मानवता के मात्थे पर
कलंक धरते .....
जब भी पढ़ता हूँ
जब भी पढ़ता हूँ
सन सी हो जाती है
रूह
हवस के पुजारियों को
क्यों नहीं गर्त तक
ले जाती है रूह .....
बेवस लाचार सी हो
जाती है मेरी कलम
क्या तर्क उठाऊं ,
किस मुद्दे को सुलझाऊं ,,,,,
कौन सी पंक्ति लिखूं
ताकि हवस के
पुजारियों पर
अंकुश अन्तकाल तक
लगा जाऊं .......
क्या उनकी नहीं है
माँ बहन और बेटी
क्या है उनकी भी इच्छा
वो भी हो किसे के
निचे लेटी ???
शर्मसार होता हूँ
रोज़
पंक्तियों को
पृष्ठों में पढ़कर
हो जाती है एक नहीं
दस आबरू तार तार
चाँद डूबने के बाद
जब आता है रवि चढ़कर उस पार ....
शनिवार, 17 जनवरी 2015
अक्षर-ए-दास्तान
अक्षर-ए-दास्तान
बहुत देर से एक
अधूरी-सी
रोशनी में बैठा था
चढ़ते सूरज
से... ढलते चाँद तक
ना जाने कितनी
बैचेनियां पाल बैठा था
अंधेरों की
जिंदगी जो मेरी उसके चिराग में..
वस -. एक सुकून
की तलाश में
आज भी सहम जाता
हूँ
देख अपने
गुलिस्तां की हालत
सिक्कों का मोल
यहाँ
तराजू जो दिल
का ? उसका तोल कहाँ ?
कोई तो सुनेगा
मेरी पुकार
है जो आज बेवश
जिंदगी , लाचार मेरी
होगा कहीं
फरिश्ता कोई
जो सुनकर मेरी
आवाज
जला देगा सुनील
जिंदगी का चिराग
तब लिख देंगे
नई
अक्षर-ए-दास्तान
अक्षर-ए-दास्तान
अक्षर-ए-दास्तान
कलम आज भी उठती
है
चलती है ,रुक जाती है
मेरे ही इशारों
की गुलाम ये
मुझे भी अपना मुरीद बनाती है !
शांत सी ,बेजान सी
मेरी जिंदगी की
पहचान भी
अपने ही जहन की
दस्तांन
लिख देता
हूँ ...... करके गर्त तक ब्यान !
क्या हो गई
गुस्ताखी
मेरे जिवंत रंग
को देख लगता है .
आ गई है इसके
चहरे पर उदासी
कोई तो सुन रहा
होगा
आज मेरे सखा की
पुकार
जिस कलम को
नहीं नसीब
अब पन्नों की बहार !
क्या करूं अब सुनील
क्या यहीं तक थी
तेरी अक्षर-ए-दास्तान !
अक्षर-ए-दास्तान
अक्षर-ए-दास्तान
पल - पल जहन
में एक ही सवाल
कर रहा है जो
मेरा जीना मौहाल
नाराज क्यों है
खुद ही - खुदा हमसे !
किसको सुनाऊँ
अपना दर्द
क्या हो गया
मेरे सीने में बढ़ते
दिनों- दिन इन
जख्मों का हाल
जुडी है जहाँ
मुझसे ,मुझी तक
ओरों की भी जिंदगी !
अब बता ए बन्दे
किसे सुनील
पुकार लगाउँ
किसे
अक्षर-ए-दास्तान समझाऊं !
अक्षर –ए – दास्तान
अक्षर-ए-दास्तान
हरपल मुझे एक
ही ख्याल
जहन में मेरे उठाता ... एक ही सवाल
जो देखा है
मैने गुजरे वक्त तक
या जो देखा
मैंने अभी वर्तमान !
क्या बोलूं ’’’ कहां से शुरू करूं
हर घर की नयी
कहानी !
व्यक्त करूं
जिसे ...अपनी जुवानी
वहां बैठा है
कोई आपकी ताक में
निगाहों से
पैमाने नाप के
निरतंर लगाए एक
ही आलाप
वस है जो जिंदगी
सुनील कोई होगा
यहाँ
सुन लेगा
अक्षर-ए-दास्तान
अक्षर –ए – दास्तान
अक्षर-ए-दास्तान
आँखों में मेरी
खाब कई
जिंदगी के मेरी
साज कई
किस धुन में अब
आपको बताऊँ
किस भाषा से
आपको समझाऊँ
देख लेता अगर
मंजर मेरा खुदा !
आज पुकार ना
लगाता
ना ही कभी हाथ
फैलता
वस गिर जाता
नतमस्तक होकर
उस खुदा के आगे
!
चाहे रख ले
मुझे अब
चरणों की धूल
में वसाके
सुनील के शब्द
आज भी
अक्षर –ए –दास्तान
है समझाते !
अक्षर –ए – दास्तान ,,,
अक्षर –ए – दास्तान
हर बार एक ही बात
हर पन्ने पर एक ही
अलफ़ाज़
ये भी आई
वो भी गई
क्या कर गई हमारी
सरकार !
क्या शुरू करूँ
क्या अंत धरुं
कौन सा कलमा लिखूं
मै सरकार !
दिनों दिन बढते जा
रहे है पन्ने
कुछ अछे
कुछ गंदे
जब उठाए हमने प्रश्न
कई दिग्गज हो गए
नंगे !
रंग काला है
दिन काला नहीं
काले धन के पन्नो का
बिल काला नहीं !
एक दशक से उठ रहा
सवाल
काले धन का हल
कर पाएगी सरकार ?
लिखने को तो लिखता
रहूँ
पन्ने काले करके
विकता रहूँ !
सुनील बनेगा नया
इतिहास ?
या यूँ ही लिखता
रहेगा
अक्षर –ए – दास्तान
जिसकी बढ़ रही विसात
!
रविवार, 11 जनवरी 2015
poem of the wind
कशिश ए तमन्ना होती
है निगाहों से ‘
धुप या छाओं हो रहना
चाहूँ तेरी निगाहों में ‘
और जन्नत की चाह
रखते है ज़ीने के लिए
हम गर्त तक जाएंगें
शाकी तुझे पाने के लिए ‘’
दीन मेरे अमान ,रूह
ए रमजान
क्या है शाकी रूह ए फ़रमान ;;
राजी है तू खुदा की
रहमत में
बता तो सही खिदमत है
किस रज़ा में .
कशिश ए तमन्ना होती
है निगाहों से ‘
धुप या छाओं हो रहना
चाहूँ तेरी निगाहों में ‘
आज फिर उमस सी उठी
है सीने में
क्या रखा है ज़ीने
में
महखाने में जाकर
आऊँ..
आग बुझाकर आऊँ
गुरुवार, 1 जनवरी 2015
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