शुक्रवार, 17 मार्च 2017

जो भी गया- हसा के गया

जो भी गया- हसा के गया 
हरे जख्मो में नमक लगा के गया॥ 
मरहम है अब यादों का 
दिल की गहराइयों में जो समाते गया॥ 
रंगीन ज़िन्दगी में किसी ने -
अच्छा- किसी ने अपना कहा हमे॥
मिली नहीं वो रूह-
जिसे सच्चा कहा हमने,
जो भी गया- हसा के गया
हरे जख्मो में नमक लगा के गया॥
खुश हूँ यादें तो है -
मेरे अंदर जो दफ़न -इरादे तो हैं॥
उलझन नहीं कोई -इतिहास गवाह है,
उल्फत में अक्सर ऐसा ही होता है-
मानते हो तुम मंज़िल जिसे अपनी
हमसफर उनका कोई और होता है॥
ये तमाशा आज सरे बाजार हो गया-
जिस्म इश्क से नहीं, रूह से सरोकार हो गया ॥
जो भी गया- हसा के गया
हरे जख्मो में नमक लगा के गया॥
दर्द-ए- उल्फ़त 'सुनील' की खातिर एक ही है,
ख़ाक का पुतला इस जहान में इंसान हो गया॥

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