मंगलवार, 22 जुलाई 2014

कुछ ना लिखूं

अगर आज कुछ ना लिखूं
तो समझ जाओगी
कि शब्द हर रोज़ की तरह
आज भी कम हैं
जुबां है याद से सूखी
और आँखें नम हैं
अगर आज कहूँ
कि कशमकश अब भी ज़ारी है
तो क्या इंतज़ार करोगी
एक हारे हुए सिपाही से
कब तक प्यार करोगी
जो तुम्हें पता चले
कि तुम्हारी दी हुई कलम
गिरवी है वक़्त की तिजोरी में
और अब नए लोग शामिल
हो गए हैं
अकेले लम्हों की चोरी में
तो क्या तुम मान जाओगी
क्या मेरी कविता को
इतनी भीड़ में
पहचान पाओगी
आज फिर सूरज और चाँद
बिना दिलासा दिए ही चल दिए
मेरे चाहने वाले ज़ख्मों का
बिना खुलासा किये ही चल दिए
नहीं दिलाया उन्होंने
दबे दर्द का एहसास
नहीं बढ़ायी
तुम्हारा नाम ले के मेरी प्यास
इसीलिए खाली एक पन्ना है
और जेब भर के आशा
नहीं आई अब तक मुझे
व्यवहार की भाषा
इस चुप में छुपा है वो सब
जो तुम जानती हो
तब से
जब से मुझे अपना मानती हो
तभी कहा कि
कुछ न लिखूं तो चलेगा
दिए का क्या है
मन के साथ रात भर जलेगा

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