सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

रूह-ए-कलम

रूह-ए-कलम

आज भी गुजारिश है
न कोई सिफारिश है
मरकर भी ज़िंदा रहूँ
यही दिल की खबाहिश है।

भूलना तो चाहता हूँ
लेकिन भूल नहीं पाता
हरे हैं भरे नहीं जख़्म
यही है दुनिया से नाता

चंद लम्हे पहले ही
हुई थी मुलाकात
रूह- ए- कलम से
जब बैठा था महखाने में

छोड़ कर चल दिया जाम
उसी बहाने से
कोई फर्क पड़ता नही 'सुनील'
ज़िंदा रहूँ या मौत को गले लगाऊं
 इस ज़माने में।

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