सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

रूह-ए-कलम

रूह-ए-कलम 
आज फिर सूरज और चाँद
बिना दिलासा दिए ही चले गए 
मेरे चाहने वाले ज़ख्मों का
 खुलासा किये बिना चले गए। 
नहीं दिलाया उन्होंने 
दबे दर्द का एहसास 
नहीं बुझाई 
तुम्हारा नाम ले ले कर  मेरी प्यास । 
तभी शायद खाली पन्ने है किताब के 
और जेब भर के आशा
नहीं आई अब तक मुझे
प्यार की समझ भाषा। 
मेरी ख़ामोशी में छुपा है वो सब
जो तुम जानती हो तब से 
जब से मुझे अपना मानती हो .
तभी कहा कि
कुछ न लिखूं तो चलेगा
तुम्हारी ही जिद्द थी 
आज एक और पन्ना फिर भरेगा। 
रूह-ए-कलम का क्या है 
जब तक ज़िंदा हूँ 
यूँ ही तेरी याद में 'सुनील' 
लिखता रहेगा , ये चलेगा !

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