रूह -ए-कलम
अगर आज कुछ ना लिखूं
तो समझ जाओगी
कि शब्द हर रोज़ की तरह
आज भी कम हैं
जुबां है याद से सूखी
और आँखें नम हैं।
अगर आज कहूँ
कि कशमकश अब भी ज़ारी है
तुम्हारी दी हुई कलम
आज भी डायरी के बीच संभाली है।
रूह -ए-कलम की तिजोरी में
अकेले लम्हों की चोरी में
क्या तुम मान जाओगी
'सुनील' को
इतनी भीड़ में पहचान पाओगी।
अगर आज कुछ ना लिखूं
तो समझ जाओगी
कि शब्द हर रोज़ की तरह
आज भी कम हैं
जुबां है याद से सूखी
और आँखें नम हैं।
अगर आज कहूँ
कि कशमकश अब भी ज़ारी है
तुम्हारी दी हुई कलम
आज भी डायरी के बीच संभाली है।
रूह -ए-कलम की तिजोरी में
अकेले लम्हों की चोरी में
क्या तुम मान जाओगी
'सुनील' को
इतनी भीड़ में पहचान पाओगी।
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