बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

हड़तालों का देश

हड़तालों का देश 

बड़ी ख़ामोशी से देखता हूँ दुनिया को 
कोई कसर नहीं छोड़ी है.
मसला कोई भी हो  
हर मुद्दे पर एक ही बात छेड़ी है ,
हड़ताल , विरोध ने हर राह है घेरी। 

मौका परस्तों को भी मौका मिला 
शुरू कर दिया वाह-वाही लूटने का शिलशिला 
नेता लोग भी बीच मैदान में आए 
गले लग- हमदर्दी दिखाए ,

बैठ होते है सुनील जैसे भी 
बीच झुंड में नारे लगाए 
करके वक़्त बर्बाद 
लौट बंधू घर को आए। 
पूछ लिया घर वालों ने -
कहाँ जाकर कुर्ते फ़ड़वाए 
लेकर नहीं ?
दो गुना बर्बाद करके हो आए। 
न काम पर गए - न कुछ जीत के आए। 

अरे ! किया होता बैठ के चिंतन थोड़ा -
हल हो जाता मसला सारा ,
मज़बूर हैं जो अब तक  समझ न पाए 
हल नहीं हड़तालों से
"हड़ताली देश के नागरिक "
हम न बन जाए  
सोचों समझों फिर कदम उठाओ 
हर कदम अन्ना जी की ओर न ले जाओ। 

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