रविवार, 15 मई 2016

अक्सर बलि का बकरा बनता है प्रेमी


आज की बात की जाए या उस दौर की जो कहानियाँ किस्से किताबों में पढ़े  है। लेकिन गवाह वो चंद पंक्तियां ही है जो मैंने पढ़ी है। आशिक़ी और आशिक़ के बारे में बहुत सूना भी है। लेकिन जब भी मुझे कहानी के अंत तक पहुँचाया गया ,किसी भी कहानी में मैंने प्रेमिका को मरते नहीं देखा।  जब भी सुना पढ़ा वस् प्रेमी को ही बलि का बकरा बनते सूना ,पढ़ा और वर्तमान में देख भी रहा हूँ। क्यूंकि आशिक़ी आज भी की जाती और खुद खुदा की रेहमत से बढ़ी चाहत से की जाती है।अब  वो दौर भी नहीं है कि घंटों इंतज़ार करना पड़ेगा तब बात होगी। खाब और ख़याल में कटने वाली रात होगी। वर्तमान में दूरसंचार यंत्र है ,अगर उस पर सम्पर्क न हो सके तो भू - जाल तंत्र है। सम्पर्क तो  ही जाता है और कौन सी हीर चार पहरों के बिच घिरी है। पीजी में ही तो रहती है जब इच्छा की जाकर मिल लिए। विडिओ कॉल का चलन भी  अब काफी हो गया है - अगर प्रदेश में मासूक हो तब भी दीदार-ए- महबूब का तो हो ही जाएगा। लेकिन आशिक़ी पर प्रश्न  तो बीते दौर में उठता था ,वर्तमान में भी उठता है और शायद आने वाले वक़्त में भी हिंदुस्तान में ये प्रथा चलती रहेगी। लेकिन जब भी प्रश्न उठता है उसका साधारण हल नहीं निकला है ,उसका अंतिम नतीजा ही सामने आया है। आशिक़ की मौत - किस्सा कोई भी ,कसूर किसी का भी हो। भुगतान तो आशिक़ी करने का आशिक़ को भुगतना पड़ता है। उसी को ही बलि का बकरा बनाया जाता है। लेकिन उसके बाद का चरण की पुस्तिका में मैंने नहीं पढ़ा और न ही किसी की ज़ुबान से सुना - कि आखिर हीर (प्रेमिका ) का क्या हुआ। वो किस गली किस डगर गायब हो गई। उन्हें हवा वहा के ले  गई होगी शायद किसी और को बलि का बकरा बनने के लिए।

कंधे तो बहुत मिल जाते है मज़ार - ए - महोब्ब्त पर

वस् आंसू बहना शुरू करो - हम बढ़े ही शौंक से आएँगे 

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