क्या है डोपिंग टेस्ट?
आम तौर पर
एक खिलाड़ी का
करियर छोटा होता
है. अपने सर्वश्रेष्ठ
फॉर्म में होने
के समय ही
ये खिलाड़ी अमीर
और मशहूर हो
सकते हैं. इसी
जल्दबाजी और शॉर्टकट
तरीके से मेडल
पाने की भूख
में कुछ खिलाड़ी
अक्सर डोपिंग के
जाल में फंस
जाते हैं.
यह बीमारी केवल भारत
में ही नहीं,
पूरी दुनिया में
फैली हुई है.
हाल ही में
अंतरराष्ट्रीय खेल पंचाट
ने डोपिंग को
लेकर रूस की
अपील खारिज कर
दी, जिससे रूस
की ट्रैक और
फील्ड टीम रियो
ओलंपिक में भाग
नहीं ले सकेगी.
यहां तक कि
बीजिंग ओलंपिक 2008 के 23 पदक
विजेताओं समेत 45 खिलाड़ी पॉजीटिव
पाए गए. बीजिंग
और लंदन ओलंपिक
के नमूनों की
दोबारा जांच में
नाकाम रहे खिलाड़ियों
की संख्या अब
बढ़कर 98 हो गई
है.
क्या
है वाडा और
नाडा?
किसी भी खिलाड़ी
का डोप टेस्ट
विश्व डोपिंग विरोधी
संस्था (वाडा) या राष्ट्रीय
डोपिंग विरोधी (नाडा) ले
सकता है. अंतरराष्ट्रीय
खेलों में ड्रग्स
के बढ़ते चलन
रोकने के लिए
वाडा की स्थापना
10 नवंबर, 1999 को स्विट्जरलैंड
के लुसेन शहर
में की गई
थी. इसी के
बाद हर देश
में नाडा की
स्थापना की जाने
लगी. इसके दोषियों
को 2 साल सजा
से लेकर आजीवन
पाबंदी तक सजा
का प्रावधान है.
डोपिंग का इतिहास
वैसे देखा जाए
तो डोपिंग का
इतिहास काफी पुराना
है। 1904 ओलंपिक में सबसे
पहले डोपिंग का
मामला सामने आया
था, लेकिन इस
संबंध में प्रयास
1920 से शुरू हुए।
शक्तिवर्धक दवाओं के इस्तेमाल
करने वाले खिलाड़ियों
पर नकेल कसने
के लिए सबसे
पहला प्रयास अंतरराष्ट्रीय
एथलेटिक्स महासंघ ने किया
और 1928 में डोपिंग
के नियम बनाए
गए।
1968 ओलंपिक
में पहली बार
डोप टेस्ट अमल
में लाया गया
और धीरे-धीरे
ऐसा करने वाले
खिलाड़ियों पर शिकंजा
कसना शुरु हो
गया। लेकिन इस
दिशा में बड़ा
प्रयास उस वक्त
हुआ जब 1998 में
प्रतिष्ठित साईकिल रेस टू-डी-फ्रांस
के दौरान खिलाड़ी
डोप टेस्ट में
असफल होते पाए
गए। ऐसे में
यह महसूस किया
गया कि डोप
टेस्ट को लेकर
अभी तक प्रयास
बहुत ही बौना
साबित हुआ है।
लिहाजा अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने
1999 में विश्व एंटी डोपिंग
संस्था (वाडा) की स्थापना
की। इसके बाद
प्रत्येक देश की
ओर से राष्ट्रीय
स्तर पर डोपिंग
रोधी संस्था ( नाडा)
की स्थापना की
जाने लगी।
1968 में पहली
बार हुई थी
फजीहत
भारत में डोपिंग
को लेकर बड़ा
खुलासा 1968 के मेक्सिको
ओलंपिक के ट्रायल
के दौरान हुआ
था, जब दिल्ली
के रेलवे स्टेडियम
में कृपाल सिंह
10 हजार मीटर दौड़
में भागते समय
ट्रैक छोड़कर सीढ़ियों
पर चढ़ गए
थे. उस दौरान
कृपाल सिंह के
मुंह से झाग
निकलने लगा था
और वे बेहोश
हो गए थे.
जांच में पता
चला कि कृपाल
ने नशीले पदार्थ
ले रखे थे,
ताकि मेक्सिको ओलंपिक
के लिए क्वालिफाई
कर पाएं. इसके
बाद तो फिर
डोपिंग के कई
मामले सामने आए.
अंतरराष्ट्रीय
ओलंपिक समिति के नियमों
के अनुसार डोपिंग
के लिए खिलाड़ी
और केवल खिलाड़ी
ही जिम्मेदार होता
है. डोपिंग में
आने वाली दवाओं
को पांच श्रेणियों
में रखा गया
है. ये हैं-
स्टेरॉयड, पेप्टाइड हार्मोन, नार्कोटिक्स,
डाइयूरेटिक्स और ब्लड
डोपिंग.
कैसे लिया
जाता है टेस्ट?
किसी भी खिलाड़ी
का कभी भी
डोप टेस्ट लिया
जा सकता है.
इसके लिए संबंधित
फेडरेशन को जिम्मेदारी
दी गई है.
किसी प्रतियोगिता से
पहले या प्रशिक्षण
शिविर के दौरान
डोप टेस्ट अक्सर
लिए जाते हैं.
ये टेस्ट नाडा
या फिर वाडा
की तरफ से
कराए जाते हैं.
वह खिलाड़ियों के
मूत्र को वाडा
नाडा के विशेष
लेबोरेट्री में पहुंचाती
है.
नाडा की लेबोरेट्री
नई दिल्ली में
है. 'ए' टेस्ट
में पॉजीटिव आने
पर खिलाड़ी को
बैन किया जा
सकता है. यदि
खिलाड़ी चाहे तो
'बी' टेस्ट के
लिए एंटी डोपिंग
पैनल में अपील
कर सकता है.
इसके बाद फिर
नमूने की जांच
होती है. यदि
'बी' टेस्ट भी
पॉजीटिव आए तो
अनुशासन पैनल खिलाड़ी
पर पाबंदी लगा
सकती है.
दोषी खिलाड़ी
कर सकता है
अपील
नाडा से मिली
सजा के खिलाफ
खिलाड़ी वाडा में
अपील कर न्याय
मांग सकता है।
इतना ही नहीं
खिलाड़ियों के खिलाफ
किसी तरह अन्याय
ना हो इसलिए
विशेष खेल न्यायालय
स्पोर्ट्स आर्बिटेशन कोर्ट भी
बनाया गया है,
जो सर्वोच्च अपीलीय
न्यायालय है।