शनिवार, 28 मार्च 2015

akshar e dastan



आज आँखों में नमी सी आ गई
गुज़रे दिनों का बिसरा है जो पास मेरे
उन यादो के साथ की कमी
आज यूँ मेरी जिंदगी में समा गई ...
भुलाना भी चहुँ
बहलाना भी चहुँ
अपनी तन्हाई की आग से
उन यादों को जलाना भी चहुँ ..
करूँ तो क्या ?
सवाल यही दोहराता जाऊं ..
कौन सा रास्ता दूँ
अपनी विरहा के शैतानो को
जिसके खुलते ही मै सकूँ पाऊं ...
सहारा यही है सुनील तेरा
जो अक्षर ए दास्तान का पन्ना है मेरा
खुदा की शायद मेहरबानी रही है यही मुझ पर
ज्ञात नहीं ,जो ज्ञात है समक्ष लता जाऊं ....
माला शब्दों की सजाता जाऊं
थोडा थोडा ही सही
सकूं पता जाऊं ....




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