गुरुवार, 20 सितंबर 2018

सरिता... स्त्री हटो, सर्वो हटो परि ( दिमाग खराब है )

बचपन में हमारे हाथ कभी-कभार एक पुस्तिका लगती थी. आजकल उस पत्रिका को देखे अरसा हो गया. हां- उसका ऑनलाइन एडिशन उपलब्ध है .ये अब ज्ञान पड़ा . उनकी कहानियां, विचार , राजनीति व जीवनशैली का अनोखा संगम- नाम सरिता .वैसा ही रुप सरिता का है -- इसमें कोई दोराय नहीं- क्योंकि हमने भी सरिता को ऐसे ही देखा है. एक ख्याल भर के लिए जब विचार किया- महसूस भी यही किया.

(  वैसे भी सरिता का पर्यावाची नदी , धारा है. मूलांक - 5, लिंग- स्त्री.- फिर महाशय आप जान लीजिए- स्त्री हटो, सर्वो हटो परि  )

वाक्य में सरिता का ये अंदाज कभी नहीं देखा. जो अपने अंदर न जाने कितने सपनों को संजोए बैठी है. लेकिन शांत है, उस नदी की तरह जो बहती हवा को रुख देख के अपनी मदमस्त चाल से हैं. पर उसके उफान - उसके सब्र का बांध कब टूट जाए, कुछ पता नहीं होता.अब संयोग की बात यह भी जान पड़ी की . जिस सरिता को हमने बचपन में देखा है. वो आज न जाने  नदी की तरह कितने ही समुद्र को अपने आगोश में लिए हुए है.

गंगा मैया में हम ढूबकी लगाने हर साल जाते हैं लेकिन उस ढूबकी के साथ न जाने क्या-क्या वहां ढूबो कर आ जाते हैं. पर गंगा मां कुछ नहीं कहती- बस कभी-कभार शांतमय ढंग से विक्राल रुप ले लेती है. फिर सब चिल्लाते हैं बाढ आ गई. अब किसी के आगोश  में रहकर अंदर ही अंदर उसको दुखी करोगे तब वो  इंसान करे- तो- करे भी क्या.

कुछ ऐसे ही दौर से सरिता भी गुजर रही है. जिनपर विश्वास किया - उन्होंने आहत करने के सिवाय कुछ सलीका नहीं दिया. अब ऐसी स्थिति में- आम सी बात हो गई है, आजकल की दुनिया में विश्वास किस पर करें. हां भई- किसपर करें- सब विश्वास में घात लगाकर बैठे हैं .

लेकिन सरिता का सालों पहले देखा चेहरा और अंदाज अब काफी बदला हुआ है, उसकी आंखों में कुछ पाने की ललक, चेहरे पर रौनक जो बुद्धिमता और शालीनता को दर्शाता है. आवाज में बाइब्रेशन है- सालों बाद सुनी तब यह  भी जान पड़ा की इंसान अंदर से निराश है. लेकिन सालों पहले और अब - सही में
माना के बदलाव प्रकृति का नियम है- लेकिन ऐसा भी क्या की इंसान कुंठित अवस्था में होकर खुद को ही बदल दे. अब इतना तो तय है कभी -कभी जिस सरिता को हम जानते हैं  वो पल भर के लिए  आज की सरिता  आती है, लेकिन जो जख्म भरे नहीं .... उनको फिर हरा कर जाती है. और आज की सरिता फिर फोन में से अपना दृष्टिकोण तलाशती है. अब विश्वास फोन- और सोशल मीडिया में कैसे मिलता है- आप सबको पता है, इसके बारे में दिमाग खराब फिर करेंगे.
 
हां विश्वास कि जो परिभाषा हमारे लिए है-  एक आस जो हम किसी न किसी से किसी भी रुप में लगा कर बैठे हैं. पर क्यों हर कोई रिश्तों के आधार को तार-तार कर रहा है. पर इंसान की एक बात यहां पर तारीफ के काबिल है. एक बार- दो बार - दस बार , विश्वास घात होने के बाद भी कुतुब मिनार की तरह खड़ा  है,  चाहे दिल में दर्द ठीक वैसा हो जैसा ताजमहल बनाने के बाद मजदूरों को दिया गया हो. ठीक ऐसी ही आदत सरिता की है. जो शायद अंदर में एक सैलाब लिए बैठी है, लेकिन कठोर है , जिसका अनुभव काफी कुछ बयान करता है. और ऐसे ही इंसानों से सिखने के मिलता है- जिंदगी मे जो भी स्थिति आ जाए. खुद को कैसे संभालना है. तूफान वाले मंजर को बिना आंखे झपकाए कैसे सहन करना है. मतबल अंदर ही अंदर इंसान रो रहा होता है लेकिन चेहरे पर खुशी झलकती है - बेशक आज आंखों के नीचे काले घेरे हुए पड़ें हो.

 लेकिन वर्तमान मे अगर कोई अड़िग है तब आम सी बात भी होते देखी है,. उसको गिराने में चंद राह के मुसाफिर भी कोई कसर नहीं छोड़ते .जो दोस्त और हमदर्द बनके - मतलब निकाल कर किसी और डगर निकल लेते हैं. हां- नदी में भी कई छोटे- मोटे नाले आकर मिलते हैं. और बाद में बड़ी शान से कहते हैं. हम सागर में जा मिले .पर भूल जाते हैं. ये पानी है इसका इतिहास सिर्फ नदी से ही जाना जाता है.
औऱ नालों की तरह की आज के दौर में वैस भी जनता विश्वास की आस में घूमती है. गाना सूना ही होगा- पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले- झूठा ही सही... 
अब इन पंक्तियों का जिक्र और फिक्र दोनों ही विश्वास की उस  नदी के तट पर हैं जिसका संगम कभी हो नहीं सकता. दो किनारे किसी तट के हमने यूं मिलते नहीं देखे- आपने देखें होंगे तब हमे भी बताइएगा.

तब तक हम भी शायद बदलाब देख लेंगे की सरिता अब जिंदगी के बहाब में ठीक वैसे ही है- जैसी बचपन में थी. हां एक बात और भी याद आई- आपने भी कहीं न कहीं पढ़ी ही होगी. जिंदगी जीना बच्चों का खेल है- बढ़ों का नहीं. .. इसलिए खुश रहो, आबाद रहो और जिंदाबाद रहो.  खुद पर विश्वास करो- और हरेक छोटी सी खुशी के लिए भी भगवान का शुक्रगुजार रहो.
नहीं तो दिमाग खराब है ही.... कुछ और कर लेना. लेकिन बुजदिलों की तरहा नहीं जिंदादिलों की तरह,.

कोई टिप्पणी नहीं: