शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

जानते हो.. बेरोजगारी नहीं, सब दिमाग की बिमारी है

पिछले एक दशक से भारत में एक ऐसी बीमारी ने जन्म लिया है जिसका इलाज शायद ही हो. हां -उस बिमारी का नाम सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के मैनिफेस्टो में ज्यादा पढ़ने को मिलता है.या फिर सियासतदानों की जबानों पर जब यह भाषण दे रहे होते हैं. अब मसला यह है कि एड़स का हल हो जाए लेकिन शायद इस बिमारी का नहीं। एक वक्त हमने ही कहा था कि रोजगार का गम प्यार के गम से कहीं लाख बड़ा होता है. इस बात में कोई दोराय नहीं। वाक्य में ही अगर रोजगार नहीं हो फिर बीबी तो दूर की बात प्रेमिका भी लात मार कर चली जाती है. अक्सर कईयों ने यह बात कही या सूनी होगी,

पर बेरोजगारी है कहां भई यह भी बताओ- जिनके पास रोजगार है वो दूसरे-चौथे दिन सरकार की अर्थियां निकाल कर किसी चौराहे पर बैठे होते हैं. और जो रोजगार चाहते हैं वो सिर्फ तलाश करते हैं कुर्सी की. बस भई कुर्सी पर बैठना है चाहे जो मर्जी हो - और ये कुर्सी की लालसा उनको या तो कोलसेंटर पहुंचा देती है या फिर घर पर एक खूंटी से बंधवा देती है.
अब वास्तिविकता में जो बात है वो यहां आकर खत्म हो जाती है कि हमें काम नहीं करना है आराम करना है. और भारतियों के मेहनतकश हाथों पर भ्रम की मेंहदी लग गई है, जिसमें लड़ियों की संख्या से तीन गुना ज्यादा लड़को की संख्या होगी। ( हमारी हिमाचली में एक कहावत है- नाईया बाल केडे-केडे, भाउ बस मुंया गां ही औणें ) वस यही हिसाब हमारे देश के नौजवानों का है. जिसमें अधिकतर बीटैक किए हूए हैं.  जो रोज रात को एक मकान गहरी नींद में जाने से पहले बनाते हैं और सुबह आंख खुलने से पहले बिस्तर पर खुद को पाते हैं.

बीटैक किए आपके भी कुछ दोस्त होंगे- जिन्होंने या तो फील्ड ही चैंज कर दी होगी या फिर कहीं कम वेतन में गुजारा कर रहे होंगे। यह अकेले बीटैक वालों की बात नहीं है और भी कई महानुभाव है जिन्हें शौंक सिर्फ एसी कैबिन में कुर्सी पर बैठने का है. अब हमारी सरकार इतने कैबिन तो बना नहीं सकती , हां आश्नासन दे सकती है. 5 साल के लिए - उसके बाद- आना हो या नहीं यह उनको खुद पता नहीं,

वर्तमान में हालात कुछ ऐसे हुए पड़े हैं कि मजदूर काम करने को नहीं मिल रहा. ठेकेदार चार लोगों वाला काम एक से करवाने को मजबूर हुआ पड़ा है. क्योंकि गांव के युवा शहर का रुख कर गए. और शहर के विदेश का या किसी दूसरे शहर का , वहां उन्हें बर्तन धोने मंजूर है - बेरोजगार घूमना मंजूर है , लेकिन मजदूरी नहीं कर सकते भई.

एक लकडी का काम करने वाला- मजदूरी और एक आर्किटैक्टर मजदूर नहीं
होटल में वेटर का काम करना सही- गांव में खुद की दूकान या मेहमान नबाजी करना मजदूरी
फैक्टरियों में पलंबर बनो या फीटर वो मजदूरी कर लोगे, लेकिन आईटी होल्डर 8 -10 गांवों से जुडकर अगर काम करेगा तब उसको शर्म आएगी और भी कई ऐसे उदाहरण है, जिन्हें काम करनी की शर्म आती है जनाब- कहीं कोई बेरोजगारी नहीं। हां- सरकार भी कहती है बेरजगारी दूर करेंगे- कैसे करोगे सरकार- जहां लोगों को काम करने में शर्म आती है.    


अब कहो बेरोजगारी- अरे भई कोई काम करने वाला तो बने- नौवत यह आ गई धीहाड़ी वाले नहीं मिलते  है, सबको कुर्सी पर भारत में बैठना है, और भारत के बाहर चाहे बर्तन धोने मंजूर हैं. अगर साथ काम करने वाले को भी कह दो यार यह काम कर देना , तब वो उस काम को भी बोझ समझता है. चाहे वो उसके हित का ही क्यों न हो. अब बीमारी जो हुई पड़ी है, बेरोजगारी की , तभी शायद  दिमाग खराब है। 

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

युवा देश की रंगीन सोच और अकेलापन ( दिमाग खराब है )

( खोटा सिक्का ) आपने बचपन में कहावत सूनी होगी. या आज भी कभी-कहीं कहते सूना होगा, कही भी होगी. सिक्कों का पता चल जाता है कि खोटा है  या नहीं,  पर नोट एक का हो या 2 हजार का कभी पता नहीं चलता खोटा है या नहीं. जरा सी भी फट जाए- फिर तो गया काम से. जैसे मां-बाप बेटी का कोई कसूर नहीं निकालते पर , बहु के बारे में घर क्या -  गांव भर में उसकी चर्चा होती है.  जिंदगी मे मां-बाप के लिए उनकी (कुछेक ) औलाद भी नोट की तरह ही है. और कुछेक ने अपनी जिंदगी ऐसी बना ली है. रंगीन नोट- शायद आपने भी तो नहीं ---

शायद हां- अकेला नोट जेब में पड़ा हो तब खुशी होती है लेकिन अगर वो चिल्लर हो जाए फिर जिज्ञासा रहती है यार पैसे कम हैं. शायद सही है. जिसके पास सौ हैं वो भी सुखी नहीं. जिसके पास गिनने का वक्त नहीं वो भी सुखी नहीं. हमारी मम्मी अकसर यही बात कहती हैं. साथ ही यह भी कहती है कि कम मे गुजारा कर लो पर खुश रहो - ज्यादा की इच्छा दुखी कर देती है.( जिन्होंने किसी लड़की या लड़के से प्रेम किया है वो इस बात को समझ सकते हैं. )

पर अब पॉकेट में ज्यादा है या कम यह गम नहीं. हां -गम इस बात का है कि क्यों परिवार होने के बावजूद भी एक ऐसे शख्स की तलाश रहती है, जो हमारी सुने- हम बिना किसी संकोच के उससे हर बात शेयर करें. जिसे हम अकेलापन भी कहते हैं या समझते हैं. पर अकेलापन खत्म होने पर कई दफा दर्द देकर चला जाता है.  अब जिंदगी रंगीन कैसे हो ------ आजकल जो इंडियन करंसी का गुलाबी रंग है. फिर नोटबंदी के बाद और रंग में नोट आ जाए यह कहना अभी संभव नहीं , लेकिन इन रंगीन नोटों के चक्कर में आज के युवा की जिंदगी रंगीन नहीं है. यह वर्तमान का परम सत्य है. 

युवा देश की जवां सोच या लालसा - एजुकेशन के वक्त लव-सब,  ठीक है भई करो - कौन मना करता है. लेकिन कैरियर भी बना लो. पता बात क्या है या थ्री इडियटस टाइप का कैमिकल लोचा-- सब कुछ जल्दी -जल्दी हासिल करना है. स्टैप टू स्टैप नहीं. फिर जब दो सीढियां एक साथ चढ़ोगे तब पैंट अपनी ही फटती है. चाहे जिन्स की कोई सी भी कम्पनी की हो. या वो फट जाती है. या गिरा देती है.
पहला स्टैप- एजुकेशन,,,  दूसरा- कैरियर,,   तीसरा- लव,,, चौथा- शादी 

अब हम करते क्या हैं , दूसरे नंबर को हमेशा ही इग्नोर करते हैं. चाहे वो कोई भी फील्ड हो. अब एजुकेशन के साथ लव और फिर कैरियर ऐसा करोगे. फिर तो गलत है न भई...... (कुछेक मामलों में 67 फीसदी तक )

अच्छा जब पैसे कमाने का टाइम आया तब अकेलापन, क्योंकि पैसा .या पॉजिशन नहीं थी तब प्यार ने भी लात मार दी. और अब पैसा है तो अकेलापन खाने को दौड़ता है. क्योंकि हालात ऐसे हैं कि परिवार से भाई-बहन से कई बातें शेयर करने की हिम्मत नहीं होती. वैसे बु्द्धिमता इसी में है कि परिवार को कोई कष्ट न दें.

अब ऐसी स्थिति में क्या किया जाए.. कोई है क्या ------ जो सुन सके-- कोई भी नहीं - क्योकि विश्वास जिनपर था वो अब उस पात्र के काबिल नहीं रहे - जिन्हें बयान कर सकें.  फिर शुरु होता है युवा ल़ड़की और लड़के के दिमाग में कैमिकल लोचा. अब जिंदगी में रंगीनियत खत्म सी हो गई है. जो घर से बाहर रहकर जॉब या स्टडी कर रहे हैं, वो इस अकेलेपन का शिकार हो चूके हैं.

अब इस अकेलेपन में रंगीनियत और नियत दोनों एक सिक्के के दो पहलु हैं.  गौर रहे रंगीन नोट नहीं, अच्छी नियत से खुश रहकर जिंदगी जियोगे तब रंगीनियत रहेगी. तब लोग भी कहेंगे - यार उसको कोई चिंता ही नहीं. कैसा करता है सब...  चाहे दिल में गम हजार हैं हजूर- लेकिन खुद की जिंदगी को खुश करने का है फितुर

इसलिए अकेलापन बांटने के लिए ऐसा साथी रखो - जिसे खोटे सिक्के की भी कदर हो. रंगीन नोट से कहीं ज्यादा,  एक दौर में आपने दूरदर्शन पर रंगोली में गाना सूना ही होगा. गौरे काले का भेद नहीं - हर दिल से हमारा नाता है,,,... शो इग्नोर - किसी की शक्ल, अकल और आवाज को मत देखो जनाब - सब धोखा है, उसके चरित्र को देखो- वो आपके साथ कैसा व्यवहार रखता है, आप पर विश्वास करता है या टाइम पास- चाहे वो आपके बाकि जानकारों की नजर में कैसे है. सबसे अहम है अपकी जिंदगी में उसका क्या किरदार है- आप उसके साथ खुश हो , वो आपकी भावनाओं को समझे... अब इश्क-विश्क की बात नहीं- परहेज है... हाजमा खराब होता है-  नींद नहीं आती,

 इश्क करना है तो खुद से करो यार - तभी आपको सामने वाला उतनी ही गहराई से करेगा. जितनी गहराई से आप खुद से करते हो. कसम खुदा की खुद की खुशी का ही ठिकाना नहीं होगा. फिर देर किस बात की है... भई..
खुश रहो- आबाद रहो - जिंदादिल रहो... चाहे दुनिया कहती रहे- दिमाग खराब है......

बस याद रखिएगा. - गांठ बांध के--- चलो आजकल गांठ कोई नहीं बांधता - और ऐसी एप्प भी नहीं हम कोई जानते. जो आप अपने फोन में रख लें. इसलिए दिमाग की हार्डडिस्क में सेव करके ऱखिएगा... ठीक है.....

जीवन में चरित्रहीनता से बढ़ी हिनता कोई नहीं होती.. अमीरी झूकने में झूकाने में नहीं. खास कर वर्तमान समाज के परिवेश में रिश्तों को संभालने के लिए जनाब... अब मत लो अकेलेपन का खाब.. नहीं तो दिमाग होगा खराब.... ठीक है..




सरिता... स्त्री हटो, सर्वो हटो परि ( दिमाग खराब है )

बचपन में हमारे हाथ कभी-कभार एक पुस्तिका लगती थी. आजकल उस पत्रिका को देखे अरसा हो गया. हां- उसका ऑनलाइन एडिशन उपलब्ध है .ये अब ज्ञान पड़ा . उनकी कहानियां, विचार , राजनीति व जीवनशैली का अनोखा संगम- नाम सरिता .वैसा ही रुप सरिता का है -- इसमें कोई दोराय नहीं- क्योंकि हमने भी सरिता को ऐसे ही देखा है. एक ख्याल भर के लिए जब विचार किया- महसूस भी यही किया.

(  वैसे भी सरिता का पर्यावाची नदी , धारा है. मूलांक - 5, लिंग- स्त्री.- फिर महाशय आप जान लीजिए- स्त्री हटो, सर्वो हटो परि  )

वाक्य में सरिता का ये अंदाज कभी नहीं देखा. जो अपने अंदर न जाने कितने सपनों को संजोए बैठी है. लेकिन शांत है, उस नदी की तरह जो बहती हवा को रुख देख के अपनी मदमस्त चाल से हैं. पर उसके उफान - उसके सब्र का बांध कब टूट जाए, कुछ पता नहीं होता.अब संयोग की बात यह भी जान पड़ी की . जिस सरिता को हमने बचपन में देखा है. वो आज न जाने  नदी की तरह कितने ही समुद्र को अपने आगोश में लिए हुए है.

गंगा मैया में हम ढूबकी लगाने हर साल जाते हैं लेकिन उस ढूबकी के साथ न जाने क्या-क्या वहां ढूबो कर आ जाते हैं. पर गंगा मां कुछ नहीं कहती- बस कभी-कभार शांतमय ढंग से विक्राल रुप ले लेती है. फिर सब चिल्लाते हैं बाढ आ गई. अब किसी के आगोश  में रहकर अंदर ही अंदर उसको दुखी करोगे तब वो  इंसान करे- तो- करे भी क्या.

कुछ ऐसे ही दौर से सरिता भी गुजर रही है. जिनपर विश्वास किया - उन्होंने आहत करने के सिवाय कुछ सलीका नहीं दिया. अब ऐसी स्थिति में- आम सी बात हो गई है, आजकल की दुनिया में विश्वास किस पर करें. हां भई- किसपर करें- सब विश्वास में घात लगाकर बैठे हैं .

लेकिन सरिता का सालों पहले देखा चेहरा और अंदाज अब काफी बदला हुआ है, उसकी आंखों में कुछ पाने की ललक, चेहरे पर रौनक जो बुद्धिमता और शालीनता को दर्शाता है. आवाज में बाइब्रेशन है- सालों बाद सुनी तब यह  भी जान पड़ा की इंसान अंदर से निराश है. लेकिन सालों पहले और अब - सही में
माना के बदलाव प्रकृति का नियम है- लेकिन ऐसा भी क्या की इंसान कुंठित अवस्था में होकर खुद को ही बदल दे. अब इतना तो तय है कभी -कभी जिस सरिता को हम जानते हैं  वो पल भर के लिए  आज की सरिता  आती है, लेकिन जो जख्म भरे नहीं .... उनको फिर हरा कर जाती है. और आज की सरिता फिर फोन में से अपना दृष्टिकोण तलाशती है. अब विश्वास फोन- और सोशल मीडिया में कैसे मिलता है- आप सबको पता है, इसके बारे में दिमाग खराब फिर करेंगे.
 
हां विश्वास कि जो परिभाषा हमारे लिए है-  एक आस जो हम किसी न किसी से किसी भी रुप में लगा कर बैठे हैं. पर क्यों हर कोई रिश्तों के आधार को तार-तार कर रहा है. पर इंसान की एक बात यहां पर तारीफ के काबिल है. एक बार- दो बार - दस बार , विश्वास घात होने के बाद भी कुतुब मिनार की तरह खड़ा  है,  चाहे दिल में दर्द ठीक वैसा हो जैसा ताजमहल बनाने के बाद मजदूरों को दिया गया हो. ठीक ऐसी ही आदत सरिता की है. जो शायद अंदर में एक सैलाब लिए बैठी है, लेकिन कठोर है , जिसका अनुभव काफी कुछ बयान करता है. और ऐसे ही इंसानों से सिखने के मिलता है- जिंदगी मे जो भी स्थिति आ जाए. खुद को कैसे संभालना है. तूफान वाले मंजर को बिना आंखे झपकाए कैसे सहन करना है. मतबल अंदर ही अंदर इंसान रो रहा होता है लेकिन चेहरे पर खुशी झलकती है - बेशक आज आंखों के नीचे काले घेरे हुए पड़ें हो.

 लेकिन वर्तमान मे अगर कोई अड़िग है तब आम सी बात भी होते देखी है,. उसको गिराने में चंद राह के मुसाफिर भी कोई कसर नहीं छोड़ते .जो दोस्त और हमदर्द बनके - मतलब निकाल कर किसी और डगर निकल लेते हैं. हां- नदी में भी कई छोटे- मोटे नाले आकर मिलते हैं. और बाद में बड़ी शान से कहते हैं. हम सागर में जा मिले .पर भूल जाते हैं. ये पानी है इसका इतिहास सिर्फ नदी से ही जाना जाता है.
औऱ नालों की तरह की आज के दौर में वैस भी जनता विश्वास की आस में घूमती है. गाना सूना ही होगा- पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले- झूठा ही सही... 
अब इन पंक्तियों का जिक्र और फिक्र दोनों ही विश्वास की उस  नदी के तट पर हैं जिसका संगम कभी हो नहीं सकता. दो किनारे किसी तट के हमने यूं मिलते नहीं देखे- आपने देखें होंगे तब हमे भी बताइएगा.

तब तक हम भी शायद बदलाब देख लेंगे की सरिता अब जिंदगी के बहाब में ठीक वैसे ही है- जैसी बचपन में थी. हां एक बात और भी याद आई- आपने भी कहीं न कहीं पढ़ी ही होगी. जिंदगी जीना बच्चों का खेल है- बढ़ों का नहीं. .. इसलिए खुश रहो, आबाद रहो और जिंदाबाद रहो.  खुद पर विश्वास करो- और हरेक छोटी सी खुशी के लिए भी भगवान का शुक्रगुजार रहो.
नहीं तो दिमाग खराब है ही.... कुछ और कर लेना. लेकिन बुजदिलों की तरहा नहीं जिंदादिलों की तरह,.

रविवार, 16 सितंबर 2018

दिमाग खराब है - अध्याय एक

रात से सुबह और सुबह से शाम हो रही है. कई दिन हो गए हैें दिभाकर को भी नहीं देखा है. यूं अखबार से और मोबाईल फोन से पता चलता रहता है कि आज दिभाकर किस स्थिति में है और क्या हाल है. लेकिन ये भी सच है कि बचपन में जो आंख में आंख डालकर खेल- खेला जाता था, आज उसके लिए भी वक्त नहीं लगता . मशरुफियत इतनी कहां हो गई है . वो  हर मौसम में अपने वक्त से आता है , तय वक्त से एक सैकेंड लेट नहीं लेकिन आज दोपहर जब खाना खाने का मन हुआ कि आज बाहर कहीं खाना खाया जाए. तब जान पड़ा सूरज (दिभाकर ) को देखे ही अरसा हो गया है.

हां- बचपन में काफी जिद्दी था- आदत थी, जब भी वक्त लगता सूरज को देखने की हिम्मत किया करता था. अपने आप से ही नग्न आंखों से तपते सूरज को देख मस्ती किया करता था. अब ऐसी मस्ती को करने का न हमारे पास वक्त है और न ही शायद आपके पास . लेकिन अगर कभी मौका मिले तब आप भी करना कभी. सूरज यूं दिखता है जैसे उसके ऊपर कोई गोल ढक्कन घूम रहा है. ज्यादा देर देखने पर आपको सूरज के ऊपर जो ढक्कन घूमता दिखेगा यूं लगेगा - घूमता हुआ वो आपकी तरफ आ रहा है.  काफी अजीबो गरीब अनुभव है लेकिन कीजिएगा जरुर.

वैसे भी कई हमारे जैसे भी होंगे. जिन्होंने ढूबते हुए चांद और चढ़ते हुए सूरज को न जाने कौन सी सदी में देखा होगा. क्योंकि जब किसी अपने को मिले काफी वक्त हो जाए तब हम यही कहते हैं. सदियां हो गई - कहां थे भई-

अब ओरों को छोड़िए जनाब दिभाकर को आप कल या परसों सुबह मिल ही लोगे. लेकिन  कुछेक महानुभाव ऐसे भी होंगे जिन्हें खुद से मिले भी अरसा हो गया होगा. इसमें लडको की बात ज्यादा है- व्यवहारिक तौर पर लड़कियां अपनी शख्सियत से रुबरु होती ही रहती हैं. ऐसा करने के लिए वो एक वक्त था जब बाथरुम का आइन भी नहीं छोड़ती थी लेकिन अब मोबाइल का फ्रंट कैम उनकी शख्सियत को तसल्ली देता रहता है.

सही मायने में कहूं- अब हमें अपनेपन और अपनोें से मिले अरसा हो गया है, जीवन ऐसी स्थिति में है बस नाममात्र का अपनापन है. यूं कहें हम हर किसी से मतलब की बात करने का वक्त निकाल रहे हैं. और ज्यादा बात कर हैं . उनके रिश्ते वैसे ही जिंदगी में टीक नहीं पा रहे.

हां सच हैं- चंद पैसों के खातिर हम शायद मतलबी हो गए हैं, जिनके पास जिम जाने का वक्त है लेकिन मानसिक तौर से खुद को स्वस्थ करने का नहीं .  जो घर दो-चार महीने बाद जाते हैं आजकल मन बहलाने के लिए वीडियो कॉल का सहारा ले रहे हैं. इसी बहाने अपनों का फिक्र - जिंता के जिक्र से दूर हो जाता है क्योंकि जहन को तसल्ली मिल जाती है. दिन की भाग-दौड़ से चाहे जितना भी दिमाग खराब हो सकून मिल जाता है.

पर कई दफा दिमाग खराब होता है. जब वक्त पर घर न पहुंचा जाए. चाहे वो रोज़ या 2-4-6-8-10 महीने बाद.  फिर दिमाग - दिल से मुखातिब होकर कहता है-    काश..... शाम ढ़ले हम भी घर गए होते

शनिवार, 15 सितंबर 2018

मन कर रहा है प्रैस, पुलिस और पॉलिटिक्स वालों की आरती उतारने का

आज उन शब्दों का इस्तेमाल करने का मन कर रहा है जो सार्वजनिक तौर पर करने नहीं चाहिए। प्रैस -पुलिस और पॉलिटिक्स आज इन तीनों की ही आरती उतार कर पूजा करने का मन कर रहा है. एक मेंढक पूरी तलाब को खराब करती है लेकिन कुछेक ऐसे महान शख्स हैं जो रेड लाइट एरिया की सीमाओं को भी लांघते हुए दिख रहे हैं. हां-  आरती उतारनी चाहिए, कभी पुलिस वालों की जो कहते हैं, यह क्षेत्र हमारी सीमा में पड़ता ही नहीं।

कभी थाने गए हो- जाकर देखिएगा, अगर आपकी कोई सिपारिश नहीं तब थाने मेें मौजूद खाकी पहने आपकी कोई सुनवाई नहीं करेगा। अगर आप ज्यादा बोलोगे- तब हो सकता है एक मैप भी आपको दिखाया जाए. कि आप इस क्षेत्र में आते ही नहीं। क्या ऐसा कोई कानून नहीं की हम एफआईआर कहीं भी दर्ज करवा सकते हैं. ताकि संबंधित क्षेत्र को वो एफ आई आर ट्रांसफर की जा सके।

खुदा न करे आपको कभी पुलिस स्टेशन, अस्पताल और हुक्मरानों के पास जाना पड़े। लेकिन अब पत्रकार कहने वाले भी कुछेक खुद को इसी कैटगिरी में रख लें तब सही रहेगा। हरियाणा में 19 साल की लड़की से रेप हुआ और लगे हुए हैं सब के सब अपनी टीआरपी - बढाने, और ये वेबसाइड और यू टयूूूब चैनल खोलकर जो बैठे हुए हैं उन्होंने तो हदे ही पार कर दी है. न जाने कौन सी किताब पत्रकारिता की इन्होंने पढ़ी है जो अब न जाने कहां पड़ी है. हमारे हाथ नहीं लग रही.
सब पर केस करने का मन कर रहा है. जो सब पीड़िता की पहचान उजागर किए हुए हैं. यूं गोपनीय रखी जाती है, उससे पहले अगर डाटा इक्कठा करुं - उस बच्ची के साथ जो हुआ -उस तारीख को न जाने उसी क्षेत्र- उसी शहर , उसी राज्य के साथ अगर उतर भारत का भी डाटा निकालूं तब न जाने कितने बलात्कार के मामले उसी तारीख के मिल जाएंगे।
राजनेता अपनी ब्यानबाजी से बाज नहीं आते. अब यह गोदी मीडिया वाले जखम को कुरेतने से बाज नहीं आते. ले लो टीआरपी- अगले हफ्ते की चाय के साथ लिस्ट को भीगो कर चबा जाना, अगर हजम करने की क्षमता रखते हो तब... शर्म आती नहीं

सरकार के पास क्या जाओगे- क्या पूछोगे, जवाबः  पुलिस कार्रवाई-जांच कर रही है.  वो क्या राज्य का और देश का भला करेंगे जिन्हें यह तक नहीं पता होता कि उनका बच्चा क्या कर रहा है. सवाल गतल है क्या

आईए- कटघरे में , हम पूछेंगे दो सवालों के जवाब नहीं दे पाएंगे।  ये सब के सब इन्हे पता नहीं  कि इनका बच्चा किस अवस्था और किस मानसिक स्थिति में है.   विकास की बातें करने चले हैं।

आ रहा है 2019 ,,,, राजनीति करो , किसी का बेटा शरहद पर मरे, ( शहीद शब्द का अपमान आप लोगों की बात करते हुए नहीं कर सकता ) किसी की बेटी दरींदगी की भेंट चढ़े। इन्हें कूछ नहीं लेना देना- और कुछेक पत्रकार जो बने फिरते हैं उनके लिए भी मौका है , जान-पहचान हुक्मरानों से बढ़ाने का,.  करो प्रचार की हर दुराचार की कवरेज, हैडलाइन न सही , इनपुट को बोलकर --- जो खबरें ऱफ्तार से 100 -200  चलाई जाती है उनमें तो लग ही जाएगी।

प्राथमिकता, प्रमाणिकता और सत्यता के आधार पर लिख रहा  हूं. आज जो हालात पत्रकारिता के हैं. अगर ऐसा ही चलता रहा फिर जिस तरह लोग कुछेक नेताओं और पुलिसवालों को गालियां निकालते हैं, वैसे ही हर पत्रकार को भी निकालेंगे।

बेटियों की बहादुर वाला राज्य आज सच्ची कहूं तो शाम को अगर बेटी बेखौफ होकर बाहर जाती भी होगी। मां- पिता के मात्थे पर चिंता की लकीरें खींच जाती होंगी। और शायद जो बेटियां कहीं दूर पढ़ाई करती हैं या काम उनके माता-पिता को भी इस खबर के बाद सब्र जिंदगी का कुछ और ही होगा। बयान करना मुश्किल है.

शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

रेप और राजनीति - इतनी फूहड़ता कहीं नहीं देखी

रेप और राजनीति - इतनी फूहड़ता कहीं नहीं देखी

बलात्कार क्या होता हैः गूगल पर सर्च करोगे, बड़ी आसानी से कई हिस्सों में बलात्कार के मतलब मिल जाएंगे, कई संधि विच्छेद भी. लेकिन दिमाग में पहले घंटी बही करेगा जो आज तक आपने सूना है. जैसी परिभाषा दिखाई गई है, 16 दिसम्बर भारतीय इतिहास का काला दिन, जब हमने भी जाना था कि बलात्कार क्या है, लेकिन शायद उससे पहले एक मां भी अपनी बेटी से सेक्स एजुकेशन को शेयर करने से डरती या शर्माती होगी. इसलिए बीते दिनों पीएमो से अपील की है कि सेक्स एजुकेशन स्कूल से ही पढ़ाई जानी चाहिए. लेकिन दिल्ली में हुए बलात्कार के बाद इसपर चर्चा आम होने लगी. उन दिनो जब दिल्ली में रुह को झकझोर देने वाला अपराध हुआ था. उस दौरान हर घर में इसी बात की चर्चा थी. हमाऱे घर में भी -लेकिन राजनीतिक महौल और जिस किस्म की बयानबाजी जारी थी,नानी ने उस बयानबाजी को सुनते हुए कहा था- इतनी फूहड़ता कहीं नहीं देखी.

आज बलात्कार रेवाड़ी में हुआ. किसी इज्जत फिर तार-तार हुई है. पर राजनीतिक तौर पर फूहड़ता का दौर जारी है. बलात्कार की घटना का कोई पहला वाक्य नहीं है, दो-चार दिन बाद कोई नया वाक्य सामने आ जाएगा. राजनीतिक फूहडता का काम जारी है.

 चिंता न कीजिए टीवी पर टीआरपी और सोशल मीडिया के साथ-साथ शब्दों के सिपाही - तलबार बाजी कर रहे हैं. ताकि आपका आकर्षण और भी गहरा हो सके. आपकी आंखे उन शब्दों पर ऐसे टीक जाएं जैसे कोई पीड़िता अपने जिस्म को पोस्टमार्टम के वक्त कड़ा कर लेती है. मोबाइल, टीवी रीमोट , और अखबार पर भी हमारी नजरें और ऊंगलियां ऐसे ही कड़े शब्दों को देखर रुक जाती हैं. क्लिक करके जानिए पूरी कहानी.. लला-भभा - अ ब स द जो भी इस्तेमाल में लाते हैं. (ऐसी शब्दावली का हम विरोध करते हैं ) साथ ही टू फिंगर टेस्ट  का भी ,

 कुछेक बच्चियां या लड़कियां होगीं जिन्हें शायद पता नहीं की टू फिंगर टेस्ट क्या है. हमें अभी ज्ञान नहीं की मेडिकल के दौरान पीड़िता का टेस्ट इस तरीके से किया जा है या नहीं, लेकिन ऐसी स्थिति में या इस टेस्ट के जरिए जिनता हम समझते हैं - एक बार फिर रुह को झकझोर दिया जाता है. और पीड़िता शायद अंदर ही अंदर उस दौरान भी घूट रही होती है. क्योंकि इस तरह से मेडिकल के दौरान  जो स्थिति होती है- अगर महसूस करते हो तो उस दर्द को भी कीजिए-

बलात्कार के बाद पीड़ित लड़की  सरकारी अस्पताल में सफेद रंग की चादर पर लेटी  हुई थी . नर्स ने आकर पहले उसकी सलवार खोली और फिर कमीज को नाभि से ऊपर खिसकाया. इसके बाद दो पुरुष डॉक्टर आए. उन्होंने लड़की की जांघों के पास हाथ लगाकर जांच शुरू की तो उसने एकदम से अपने शरीर को कड़ा कर लिया. एकाएक दस्ताने पहने हुए हाथों की दो उंगलियां उसके वजाइना (योनि) के अंदर पहुंच गईं. वह दर्द से कराह उठी. डॉक्टर कांच की स्लाइडों पर उंगलियां साफ करके उसे अकेला छोड़कर वहां से चलते बने.

अब जिसका हम विरोध करते हैं-  जांच से पहले न तो पीड़िता की अनुमति ली और न ही उसे बताया कि उन्होंने क्या और क्यों किया. टू फिंगर टेस्ट गैर कानूनी है और अवैज्ञानिक भी. लेकिन कुंठित डॉक्टर देशभर में इसे जारी रखे हुए हैं. यह टू फिंगर टेस्ट (टीएफटी) था. साहस से सफेद चादर  से वो लड़की उठती है  तो हमारा भी फर्ज बनता है कि उसके प्रति अपनी भावनाओं में बदलाव न लाएं. बल्कि सहानुभूति दिए बिना उसका साथ दें- न की दूरी बनाएं,

 हम जो भी कहें वो समझ तो नहीं आएगा, क्योंकि इन मामलों में आप हमसे कहीं ज्यादा समझदार हो,  हां ये भी है-  हमने उन आंखो को पास से गुजरते हुए देखा है,जो इस दर्द से गुजर चुकी रूह है. वैसे भी अब पग-पग पर बलात्कार होता है. विश्वासघात को भी हम बलात्कार की संज्ञा से कम नहीं रखते. प्यार करो - चार दिन बातें करो, दोस्ती रखो- मतलब निकालो, जिम्मेदार हालात भी नहीं, विश्वास तोड़ कर,घात लगाकर, बलात्कार कर दो वस !  इसलिए एक कविता में हमने पहले ही विश्वास तोड़ने वालों को भी बलात्कारी करार दिया है. मौका परस्तों से भी सावधान क्योंकि कुछेक राजनीतिक नुमाइंदो की तरह मौके पर ही दस्तक देकर चर्चा में आकर हम जैसों का बेवकूफ बनाते हैं. कितनी फूहड़ता हो गई है ना सच्ची....




गुरुवार, 13 सितंबर 2018

कांग्रेस पर 1984, अकालियों के सिर बेअदबी और भाजपा

कांग्रेस पर 1984, अकालियों के सिर बेअदबी और भाजपा

राजनितिक परिवेश भी अंडमान निकोबार की स्थिति जैसे है लेकिन अंदरूनी और बाहरी स्थिति चुनाव के दौरान समुद्र में बहते लावे की तरह हो जाती है।  जैसे -जैसे चुनाव नज़दीक आते है एक नया मुद्दा मिल जाता है, लेकिन न भी मिले तब भी कोई बात नहीं।  लावा जब समुद्र में बहेगा फिर भाप दिखना लाज़मी है।  अब 2019 के लोकसभा चुनावों को ही ले लीजिए।  पेट्रोल -डीजल अब इतने महंगे हो गए कि  शाम को जॉब से घर वापिस जाते वक्त, जब दोस्तों के साथ महखाने का जो भी रुख करते हैं- उनके दो पेग की कैपेसिटी शायद और बढ़ गई है।  क्यूंकि टेंशन हो गई है - क्यूंकि जेब में पैसे हैं नहीं और देश का पैसा लेकर कई भगोड़े हो गए हैं।  जिस कारन शराब कारोबारी विजय माल्या के चक्कर में वित्तमंत्री अरुण जेटली विपक्ष के लपेटे में हैं।  

लेकिन रुख अगर समुद्र में बहते हुए लार्वे की तरह पंजाब का करें तो यहाँ पानी के मसले पर अभी चर्चा नहीं लेकिन हरियाणा में इनेलो मसला गर्म किए हुए हैं. गौर हो की बेअदबी मामलों को लेकर एस आई टी बन गई है लेकिन नवजोत सिंह सिद्धू हों या आप कोई किसी से कम नहीं - सब बादलों के ऊपर खूब बरस रहे हैं। 
अब ये तो गलत है भई : बादलों के ऊपर कोई, कैसे बरस सकता है। 

वक्त का ये परिंदा रुका है कहाँ - बादल सत्ता में थे तब भी पंजाब में 1984 के मसले पर कांग्रेस को लपेटे में लेते रहते थे , अब नहीं हैं तब भी - क्या करें सरकार ये 1984 का मसला क़ानूनी तौर पर हल हो सकता हैं लेकिन राजनितिक रोटियां भी सेंकनी है और वो भी मक्की की।  हर बार चुनावी बिगुल जब भी बजता था. तब धार्मिक तौर पर मुद्दा गर्माता है। लेकिन अब क्या होगा जनाब - अब अकालियों को कांग्रेस से कौन बचाएगा- नवजोत सिंह सिद्धू - बादल साहब की बाप -दादाओं और पैदाइस तक पहुंच जाते हैं. लेकिन बादल साहब कम थोड़ी - उन्होंने सिद्धू को मैंटल बताया है.

अब जहांपना जो भी हो यह कहनें में कोई दोराय नहीं कि 'कांग्रेस के सिर 1984 और अकालियों के सिर बेअदबी' :-: खूब बनेगा अब राजनीतिक महौल :-: , एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला बरकरार है।  अब  2019 की चुनावी हलचल को देख एक कहानी याद आ रही है- दो बिल्लियों और एक बंदर की - क्योंकि कांग्रेस और अकाली एक दूसरे पर लांछण लगाने से कहीं भी किसी भी मंच से पीछे नहीं, उधर रुसे यार नू मना लै- वक्त औण ते कम आवेगा-- वाला सीन आम आदमी पार्टी के बीच चला हुआ है. भगवंत मान धड़ा दिल्ली हाईकमान के साथ मिलकर सुखपाल खैरा धड़े को मनाने की फिराक में है. वैसे काबिले जिक्र है कि आप अब राजनीति जान गई है - क्योंकि चुनाव प्रचार में भी जुटी हुई है और अकाली- कांग्रेस को भी आड़े हाथ लेने से नहीं छोड़ रही। अब कहानी में बाजी कौन मारता है,  य़े 2019 के नतीजे ही बताएंगे।  जिनके समीकरण हाल ही में पंजाब में होने वाले जिला परिषद के चुनाव तय कर देंगे।

अब आप कहोगे यार कि पंजाब में अकालियों का भाजपा के साथ गठबंधन है लेकिन जिक्र कहीं नहीं। एचुअलि  हो तो सिर्फ धर्म की राजनीति रही है - पर भाजपा ने जो आग अब पैट्रोल के दामों में लगाई है। उससे समीकरण कुछ अभी कहने में सक्षम नहीं की 2019 तक अयोध्या राम मंदिर निर्माण हो पाएगा या नहीं।  होगा- तब जग जाहिर हो ही जाएगा। पर साहब धर्म के आधार पर राजनीति और कोर्ट में मामला दोनों चल रहे हैं.

चाहे वो 1984 हो या अयोध्या राम मंदिर निर्माण या अब का ताजा मसला ले लो गुरु ग्रंथ साहिब जी के अंगो की बेअदबी  \ अब यह तय है 2019 तक न ही ये मसले हल होंगे और न ही ब्यानबाजी रुकेगी। फिर सरकार जो भी सत्ता में आएगी मक्की की नहीं मिसी रोटी खाएगी विद वट्टर -

बुधवार, 12 सितंबर 2018

पता नहीं, क्या है शान - नहीं है ज्ञान

पता नहीं, क्या है शान - नहीं है ज्ञान

15 अगस्त बीत गया- अब 26 जनवरी आएगा. जिस भाव में लिखा है शायद समझ जाओ, क्योंकि गणतंत्र और स्वतंत्र दिवस के बाद किस को कोई फर्क नहीं पड़ता की तिरंगा क्या है और झंडा क्या है. सबके लिए आम सी बात हो जाती है . क्योंकि मंत्रियों की गाड़ियों पर लगा झंडा भी कई दफा शाम बीत जाने के बाद भी अगर नजर और ख्याल में रहा तब उतार लिया जाता है वर्ना कौन उसका राखा है. शायद कोई नहीं क्योंकि आंखों के सामने पड़ी हुई चीज भी हमें कई दफा दिखाई नहीं देते. किसी व्यक्ति विशेष की बात नहीं आम सी बात है गौर कीजिए-

हाल में ही भाजपा अध्यक्ष किन्हीं कारणो से 15 अगस्त को खूब चर्चा में रहे सोशल मीडिया पर भी महाशय की खूब खिल्ली उड़ाई गई. लेकिन जनाब कुछेक आज भी अगर सुबह से शाम तक काम करने वाले मजदूर को अगर बोलोगे की भई झंडा फहराना है शायद वो न फहरा पाए. चाहे वो अपने बेटे के टॉप के हाई प्रोफाइल स्कूल में पढ़ा रहा हो. वो भी नहीं फहरापाएगा. इसमें हमारी को दोराय नहीं और न ही आपकी भी होगी क्योंकि शायद आपको भी पता नहीं की कैसे झंडा फहराया जाता है. यहां भाजपा अध्यक्ष के पक्ष में भी नहीं कल को कहो की भई उनके हित में लिखा था. राजनीति पसंद  नहीं

अब मूद्दे की बात - झंडा किसी भी देश का हो हमारी जितनी समझ है , उस देश की शान है. वो बात अलग है की लोग इंग्लैंड देश के झंडे के कच्छे ( ) भी बनाकर पहनते है. गुजारिश ही कर सकता हूं कानून नहीं बना सकता. प्रोटेस्ट कीजिए लेकिन कभी किसी देश के झंडे को आग न लगाइए क्योंकि आपके  इस कदम से उस इंसान की भी भावनाएं आहत होंगी . जिसके न तो आपके प्रोटेस्ट से लेना देना है और न ही किसी मुद्दे से

अब खास तौर पर दिमाग तब खराब हुआ जब हमें खुद भी एक वक्त झंडा फहराना नहीं आता था. लेकिन बाकी कैसे सिखेंगे - कौन सिखाएगा , हमने भी खुद ही सिखा- न न हमें भी गुजारिश करने पर सिखाया गया. लेकिन आज के बच्चे जो हमारे देश का भविष्य हैं कल को पता नहीं कौन सा नेता बन जाए . पर उन्हें अगर पता ही नहीं होगा की कैसे झंडा फहराया जाता है, फिर वो कैसे फहराएंगे.

इसलिए अब सरकार इसमें कुछ कर सकती है, हम और आप सिर्फ गुजारिश कर सकते हैं, एक फरियाद जो फरमान हो आम. क्योंकि अगर स्कूल से ही इस बात की और ध्यान दिया जाए तो शायद भविष्य में अमित शाह जैसा कोई औऱ ट्रोल नहीं होगा, और न ही फिर से मीडिया की सुर्खियां बनेगी कि किसी के पैरों के नीचे देश की शान, ये वो --- हमारा देश महान ---

इसलिए भारत में जैसे हर सिनेमा घर में राष्ट्रगान गाया जाता है, वैसे ही हर स्कूल में प्रर्थना के वक्त झंडा कैसे फहराया जाता है स्कूली छात्राें को भी बताया और सिखाया जाए . ताकि वो समझ सके की भारत की महानता क्या है. नहीं तो कल को वो भी गुगल कर ही लेंगे. जैसे आज हम जैसे कुछेक करते हैं- जिन्हें पता नहीं हमारे देश का राष्ट्र चिन्ह क्या है, यूं बेशक शेर बने घूमते हों.

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मंगलवार, 11 सितंबर 2018

खूबसूरती आपकी शैल्फी में नहीं दिमाग में चाहिए जनाब, फिर लगेगी आग



खूबसूरती आपकी शैल्फी में नहीं दिमाग में चाहिए जनाब, फिर लगेगी आग

एक बात गौर की कभी- दो-चार दिन बाद लड़कों के फोन सिर्फ खराब होते हैं. लेकिन लड़कियों का फोन सीधा ब्लास्ट ही होता है. क्योंकि लड़की की डीपी और पिक्स लड़के छुप-छुप कर देखते हैं. फिर जो खूबसूती लड़की की होती है उसे मोबाइल फोन सहन नहीं कर पाता और ब्लास्ट हो जाता है. ब्लास्ट की स्थिति से पहले कभी किसी लड़की से पूछिएगा कि यार रिप्लाई क्यों नहीं कर रही हो. वो यही बोलेगी -फोन हैंग हो गया था.
भई अब हैंग होना लाजमी है- क्योंकि इतने फीचर आईफोन भी स्पोट नहीं करता फिर एंडरोइड कैसे कर लेगा. लेकिन इस खूबसूरती को कैद करने के चक्कर में मर्द जात की पतलून अब सैट दिखने लगी है. आपने एक-दो साल पहले देखा होगा कि लड़के इस तरह से पैंट बांधा करते थे जैसे पतलून नीचे ही गिरने वाला हो, वो इसलिए की उस वक्त जेब में पैसा हुआ करता था. लेकिन नोट बंदी के बाद भई बंदी (गर्लफ्रैंड) के  चक्कर में कई लोग ड्रैसअप सीख गए. अब पैंट सैट है लेकिन आए दिन फोन खराब हो रहा. यही कारण है कि प्रकृति की सुंदरता जैसे कश्मीर को जन्नत कहा जाता है. धौलाधार की पहाडिया, कई ऐसे स्थल - शायद धरती की खूबसूरती को देख आस- पास के ग्रह ही नहीं. धरती के भीतर भी जलन हो रही है क्योंकि उन्होंने शायद खूबसूती को महसूस किया है, धरती के बाहर से-  अंदर जो जीव जाते हैं वो बताते होंगे - तभी धरती के अंदर आग लगी हुई है-- हां - समझ आया ग्लोबल बार्मिंग क्यों हो रही है. क्योंकि 'धरती पर कुछेक चीजें हैं ही इतनी खूबसूरत;'

अब इस खूबसूरती को देख कर आप क्या सोचते हो - आप पर डिपेंड है, अगर धरती की खूबसूरती को बचाए रखना है, तब हमें पौधे लगाने होंगे. पर्यारवरण के बारे में आप हमसे ज्ञानी हो. और खूबसूरती की गालिब बात ही क्या करें- लड़कों में ही नहीं लड़कियों में भी डैसिंग लूक की चर्चा होती है. इसमें कोई दौराय नहीं.   अब ग्लोबल वार्मिंग से भी खतरनाक वाली स्थिति लड़के और लड़कियों में पैदा हो जाती है जब वो शैल्फी लेते हैं. माईलोर्ड- नोट दैट प्वाइंट - शैल्फी -

और शैल्फी भी ऐसी कीः आपने तरह - तरह के शायद हमसे बेहतर एंगल देखे होंगे या आपने भी बनाए होंगे- जिन्हें देख खूबसूरती की मिशाल भी नहीं दी जा सकती उसे भी आग लग जाए. शैल्फी का जिक्र करते अब लिखते-लिखते पुरानी याद और अल्फाज ताजा हो गए- दो साल पहले (2016) चंडीगढ़ स्थित रोज गार्डन में रोज़ फैस्टिवल देखने का मौका मिला दो अजीज दोस्तों के साथ (ज्योति अर्पिता) उस दौरान की खींची गई शैल्फी को पोस्ट करते वक्त लिखा था. - शैल्फी लेना सिर्फ एक सैकेंड का काम है, वक्त इमेज बनाने में लग जाता है.- पंक्ति काफी अच्छी है, अमल भी कीजिएगा.

ठीक शैल्फी का जिक्र आज के पोस्ट में भी है. क्योंकि न जाने कितने ही लड़के और लड़कियां एक-दूसरे की सैल्फी के मुरीद है. लेकिन मुरीद कुछ पल बाद मुर्दा हो जाती है क्योंकि उतनी देर में अगली पोस्ट का पोस्टमार्टम हमारी उंगलियां फोन या टैब पर कर रही होती है.  नैचुरल है भई - जरा न सोचिए
अब जो पोस्टमार्टम करते हैं गालिब उसकी मेडिकल रिपोर्ट के बारे में कभी जिक्र किया जाए, बैठे-बिठाए बंदे का हार्ट फेल हो जाए. इसलिए कभी किसी की खूबसूरती, आवाज पर कॉमेंट जरा सोच समझ कर कीजिएगा. तब बेहतर है कई दफा किसी करीबी को वह टिप्पणी आहत कर जाती है. अनेकों पोस्ट आपने भी देखीं होंगी जिनको देख आपका भी जहन कहता होगा यार गलत लिखा है, नहीं लिखना चाहिए था ऐसा... वैसे हम कभी किसी व्यक्ति -विशेष पर टिप्पणी करते नहीं. उम्मीद आपसे भी यही रखेंगे. अब मोदी सरकार के चाहे आप लेपेटे में लीजिएगा या मंगलसूत्र फिर पहनाइएगा आप पर डिपेंड है. लेकिन सार्वजनिक तौर पर ब्यानबाजी आजकल सोशल मीडिया ही नहीं हमारे अंदर भी क्रांति ला सकती है. सब डिपेंड करता है आप पर पॉजिटिव या नेगटिव वे में- ब्यानबाजी
चलिए अब फोन उठाइए और खूबसूरती का आनंद लीजिए - जिंदगी एक बार मिली है एंजॉय कीजिए , कुछ ऐसा कीजिए की वक्त भी आपका मुरीद होकर इतिहास के पन्नों को खूबसूरती से अंकित करे. न की चार कंधों के ऊपर सवार होकर ये जिस्म स्वाह हो जाए. मतलब फोन बार-बार ठीक हो सकता है, लेकिन ब्लास्ट हुआ फिर महंगा पड़ सकता है.
रिस्पेक्ट गर्लः  खास उनके लिए जो पीठ पीछे लड़कियों की तारीफ में कसीदे पढ़ते हैं- वो मर्द बनो जिसे औरत चाहे, वो मर्द नहीं जिसे औरत चाहिए.

सोमवार, 10 सितंबर 2018

शादी- उम्मीद जो जरुरी है, क्योंकि National Intrest है भई

 ध्यान से पढ़ना-
हर मां-बाप की बच्चों के बचपन से एक फिक्र और बात -बात पर जिक्र शुरु  हो जाता है. लेकिन 23- 27 साल के ऐज ग्रुप की बात करें तो एक बात हर जुबान पर होती है कि शादी नहीं करनी भई. आपके दोस्त या आप भी कभी -कभी यही बोला करते हो या बोलते थे या बोलोगे. क्योंकि वी आर सो बिजी इन लाइफ, फॉर मेक मनी, एंड ऑल

लेकिन शादी से इतना परहेज क्यों भई, ये तो हमारा नेशनल Intrest है. क्योंकि प्लानिंग  हमारे बचपन से ही शुरु हो जाती है. और रिश्तेदार भी हमसे पूछते हैं - आपको भी याद ही होगा. लेकिन यार इस शादी के लिए इतनी चर्चा बचपन से जब तक हो नहीं जाती . तब तक जारी रहती है.

लेकिन गौर करें हजूर - जहां करने की इच्छा होती है वहां होती नहीं. लेकिन नहीं होती ये भी अच्छा ही है. इसका कारण भी एक बड़ा इंटकस्टींग है. लव , सब अगला पिछला - सब पता होता है गर्लफ्रैंड और बॉयफ्रैंड दोनों को ही. लेकिन हर बार ऐसा ही नहीं होता. चलिए इस  बात को साइड में रहने देते हैं. आज नेशनल कल्चर के बारे में ही बात करते हैं. रिवाज के हिसाब से सब ओके रिपोर्ट है. कोई कहीं कमी नहीं. लेकिन बात यहां खूब जमीं है भई-

जब भी लड़का -लड़की को रिश्तेदार मिलवाते हैं. वी आर कॉल- लडकी को देखने गए हैं, या लड़की को देखने आए हैं, अगर बात ओके रिपोर्ट वाली हुई तो इंडियन रीत के हिसाब से काम चलता है. लेकिन एक बात यहां सब मस्त है कि हमें अपनो के लाड प्यार और एक भरोसे का एहसास पता चलता है कौन हमारी कितनी केयर करता है.

अब जब शादी की डेट फिक्स होती है तो न लड़के को पता होता है कि घर पर क्या चल रहा है , शादी की प्लानिंग को लेकर न ही लड़की को.. मोस्ट ऑफ द टाईम जोकि हमारा नेशनल कल्चर है,.

अब वो बात चो सच है या नहीं- जिसका सिर्फ जिक्र होता है बलि का बकरा तो लड़का होता है लेकिन लड़की की बलि अकसर ले ही ली जाती है. जो आज तक खबरों में पड़ा है. जो अकसर होते देखा भी है. हमारे समाज का नेशनल कलचर---- हम या आप उसे दहेज कहते हैं. वो दानव जो न जाने आज जितना डाटा पढ़ा तो ज्यादा हरियाणा. यूपी दिल्ली में निकल कर आया.. लेकिन आजकल दहेज लेने का तरीका बदल सा गया है. अब कैश में दहेज लिया जाता है.. वाह क्या आइडिया है.

लेकिन अब दहेज का नया रुप भी सामने आने ही वाला है. इसलिए बहु फिर हाजिर हो----
क्यों वो भी बता दिये देते हैं- अब लड़को की हिम्मत तो है नहीं की अच्छी या सरकारी नौकरी पा सकें, बात सरकारी की भी नहीं. लेकिन जिक्र कुछेक लड़को का ही- वो भी उनका जो सारा दिन घर पर रहते हैं या रहेंगे. और बीबी सुबह नाश्ता बनाएगी - जॉब पर जाएगी और शाम को आकर दो बातें रिश्तेदारों की भी सुनेगी,. हां इसके साथ एक और भी किस्सा है- दोनों जॉब पर जाते हैं - खूब कमाते हैं लेकिन एक दूसरे को संयम से वक्त नहीं दे पाते हैं. नतीजन रिश्तों में फिर भी कड़वाहट
दैस्ट अवर नेशनल कल्चर - शादी  से पहले भी, शादी के बाद भी  ये हुई असली एलआईसी
अब इस योजना का आपको मजा कैसे लेने है आप पर डिपेंड करता है. ज्यादा चिंता की बात नहीं, भावनाओं को समझो- प्यार से पत्थर भी पिघल जाता है. बस आध्यात्मिक शक्ति और आपसी प्रेम की भक्ति चाहिए. ताकि हमारा ये नेशनल Intrest चलता रहे.

 नहीं तो शादी न करने की बात भी सही है. पर बात न कीजिएगा, अड़े भी रहिएगा. फिर नतीजन जनसंख्या पर कंट्रोल तो लगेगा ही. हाहाहाहहाहा






शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

चाय में ढूबे बिस्कुट की तरह टूट जाता है इंसान

प्यार किया है कभी?  लेकिन जब  किया होगा, पहली दफा इजहार-ए-महोब्बत कम ही लोगों से हो पाता है. चलिए जिन्होंने किया है उनको आज एक बात बताते हैं. जो उनके साथ भी कई दफा घटित हुई है लेकिन हजूर करें तो क्या करें. आदत सी है दिवारों से सिर मारने की, लेकिन सिर पत्थर का हो जाता है पर कभी दिल पत्थर नहीं होता. वो तो पागल है
गाना सुना है ना- दिल तां पागल है, दो घड़ियां रोके चुप कर जू
पर दिलचस्प बात एक होर भी है. जिसे  हम नजर अंदाज करते ही नहीं, गुस्सा आकर भी पल भर में भूल जाने का गालिब सलिका हमें खूब आता है. क्योंकि जब हमें किसी से प्यार हो जाता है फिर तो मालिक इस दौर का खुदा ही है. हां- अगर एक तरफा हुआ फिर इंसान गधों से कम नहीं. जिसपर जितना वजन डाले जाओ घोड़े की तरह वो हरकत नहीं करेगा. बस अंदर ही अंदर भार को सहन करता जाएगा चाहे आंखो से आंसू क्यों न टपक पड़े.
 चलिए अब प्यार करने वालों की फितरत कुछ यूं होती है, जिसमें जो जितना ढूबता है , तैराकी मार कर बाहर आ तो जाता है लेकिन टूट जाता है. विश्वास नहीं होता !
अपना ही वो दौर याद कर  लो जब भरी सभा में भी उसी इंसान के बारे में सोचे कर बैठे रहना. जो आज फेसबुक या इंस्टाग्राम पर नजर पड़ता है. लेकिन छुपके से जब उसका सर्च प्रोफाइल करते हैं, फिर  क्या पल भर का सकूं पाकर रुह को शांति मिल जाती है.
 लेकिन  आज भी वही प्यार करने वाला इंसान वैसा है जैसे चाय में बिस्कुट ढूबो तो देतें है लेकिन अगर वक्त पर न निकाला वो ढूब जाता है. फिर वो चाय का स्वाद भी खराब कर देता है.  इसलिए किसी चीज मेें इतना न ढूबो की टूट जाओ. क्योंकि टूटे हुए इंसान को जुड़ने में अरसा लग जाता है . और फिर जिंदगी जीने का मजा भी किरकिरा हो जाता है.

चलो अब चैन से सोयें
फिर ख्बाव लें उसका
जिसको देखा नहीं है
शायद-
अरसे से दिख जाए वही चेहरा
 

शनिवार, 1 सितंबर 2018

अज्ञानी से क्यूं पूछते हो, यहां सब ज्ञानी हैं

यहां सब ज्ञानी हैं
किसी की दादी या नानी नहीं
सब गुगल की कारसतानी है
यहां सब ज्ञानी हैं

अज्ञानी से क्यूं पूछते हो
ज्ञान की बातें
कैसे जलता है दिया मजार का
क्या हाल है दिल-ए-एतबार का

कई आए- बैठे और चले गए
हाल जाना जेब के भार का
चंद सिक्कों के खातिर
खूबसूरती से बिकता है सब

फिर आंखों ने जो तरासा
वो हीरा है या शीशा
जो चमके बिखेरे हुए है
पूर्णिमा के चांद सा

कई मझे हुए खिलाडी मिले जिंदगी में
अनुभव को भी मात दे जाने वाले जाम सा
लड़खड़ाते दिखे कदम भी उनके
जो थामे बैठे थे मयखाने में रंग गुलाब का

अब हमसे न पूछो ज्ञान की बातें
अनुभव नहीं हमें रावण और बाण सा
अगर हो गई हमसे कोई गुस्ताखी
मिलेगा नहीं फिर रुह को आराम सा

यहां सब ज्ञानी हैं
किसी की दादी या नानी नहीं
सब गुगल की कारसतानी है
यहां सब ज्ञानी हैं